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संकट में शांति और धैर्य की दरकार

संकट में शांति और धैर्य की दरकार

 
शान्ति, मनावता, अहिंसा, भाईचारा और धैर्य भारतीय संस्कृति की विरासत हैं। इन संास्कृतिक मूल्यों के बिना स्वस्थ्य जीवन की आधारशिला नहीं रखी जा सकती है। हिंसा कायता की सामथ्र्य है, अहिंसा मानवता की कुंजी। मानवता शान्ति और सौहार्द्र का परिवेश तैयार करती है। मानव का जीव के प्रति प्रेम का स्पर्श, सहयोग की भावना कटुता को समाप्त करती है। लालच,लडाई-झगडे और दुःख को समाप्त करने के लिए शान्ति सशक्त औजार है। आज दुनिया भर में जितनी भी समस्याऐं हैं, जितनी भी परेशानियां हैं, उनमें सबसे प्रमुख डर, अशान्ति, असुरक्षा एक प्रमुख मुद्दा है। ज्यादातर लोग शान्ति की खोज में भौतिक सुख-सुविधाऐं एकत्रित करने में जुटे हंै, लोग अपने घरों को, अपने आप को सुरक्षित करने में लगे हुए है, परन्तु फिर भी संतुष्ट नहीं हैं, डरे-सहमें हैं। यदि हमारे पास दुनिया भर का वैभव और सुख-साधन उपलब्ध हो लेकिन शान्ति और धैर्य नदारत है तो समस्त सुख व्यर्थ है। मानव द्धारा संसार में किये जा रहे सभी प्रयोग शान्ति की सस्कृति विकसित करने के लिए ही है। जहां शान्ति है, वहां विकास है। जहां विकास है, वही समृद्धि है। जहां समृद्धि है वहीं सुख है और जहां सुख है, वहीं स्वास्थ्य है। जहां मानवता का बोल-बाला है, वहां हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है और वहीं शान्ति की संस्कृति विकसित की जा सकती है। 
  मौजूदा दौर में पूरा विश्व डर, भय और अशांति के माहौल में झुलसा हुआ है। डर, मानव जाति के उपर जानलेवा महामारी का, जिसने कहीं-कहीं मानवता को भी अपनी कैद में ले लिया है। कहीं लोग डर के कारण, कहीं अपने-अपनों के बचाव के लिए अकसर मानवता की पुकार को अनसुना करते नज़र आ रहें हैं। संयुक्त राष्टृ के महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने दुनिया भर के धर्म सेवकों से कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए एकजुटता से शान्ति की दरकार बनाये रखने की अपील की है। उनका मानना है कि यदि दुनिया शान्ति और धैर्य से एक साथ मिलकर इस महामारी से लडने की हिम्मत जुटाये तो जल्द ही इस महामारी पर दुनिया जीत हासिल कर लेगी। 21वीं सदी की इस महामारी को मानवता पर हावी होने की इजाज़त नहीं दी जा सकती, मौजूदा दौर की परिस्थितियों में इस मानवीय समस्या का हल खोजना हालिया जरूरतों में से एक है। अहिंसा, मानवता और शान्ति बुद्ध और महावीर की विरासत हैं, उनका अहिंसा परम धर्म का संदेश भारत को विश्व गुरू बनाता है। यहीं भारतीयता की पहचान है। भारतवंशी इतिहास क्षमा, दया, प्रेम से भरा-पूरा है। अतीत के बलिदान भारत को विश्व में शान्ति का संदेश वाहक बनाती है। हर भारतीय की प्राथमिकता है कि वह अपनी शान्ति की विरासत को आने वाली पीढ़ी में हस्तान्तरित करे, उन्हें सहेज कर रखे। मानवता, अहिंसा, शान्ति एवं विकास से ही सुख का साम्राज्य खडा किया जा सकता है। वर्तमान समय अशान्ति और दुःख के भयानक दौर से गुजर रहा है। ऐसे में जरूरत है कि हम अपने शाश्वत सत्य को स्वीकारे और मानवता के अहिंसक मार्ग का अनुसरण करें ताकि हमारे भीतर धैर्य का समावेश हो और हम शान्ति की संस्कृति विकसित करने में सफल हो। अहिंसा शान्ति की संस्कृति विकसित करने का सशक्त माध्यम है। महात्मा बुद्ध का मानना था कि ’शान्ति भीतर से आती है इसे इसके बिना न तलाशे’ उनका मानना था कि गुस्सा और नकारात्मकता युद्ध और लडाई का कारण बनती है। व्यक्ति तभी शान्ति और सद्भाव से रह सकता है जब वह मन से क्रोध और नकारात्मकता त्याग दे और प्रेम और करूणा का भाव पैदा करे। मौजूदा परिस्थिति अपने को सुरक्षित रखते हुए अपने परिवार, समाज और राष्टृ के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाने की है। इतिहास गवाही देता है कि बडे़ से बड़े संकट से निकलने का बेहतर मार्ग धैर्य और शान्त मस्तिष्क की ही देन रहे है।
  जिसप्रकार हिंसा पशुओं का नियम है, उसी प्रकार अहिंसा मानव का नियम है। पशु शारीरिक शक्ति के नियम का प्रयोग करते हैं, मानवता, दयाभाव उनके आत्मबोध का हिस्सा नहीं अपितु मानव की गरिमा उच्चतम नियम का प्रेरक है। वह दया, क्षमा, प्रेम के आत्मबल का नियम का पालन करता है। जिनका पालन कर ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा की खोज की। वे न्यूटन से भी अधिक प्रतिभाशाली, वेलिंग्टन से भी बडे योद्धा थे क्योंकि शस्त्रों के प्रयोग में निपुण होने पर भी उन्होंने उनकी व्यर्थता को पहचाना और विश्व को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा, शांति और धैर्य में है। अहिंसा का वास्तविक अर्थ ही ’निडर होना’ होता है। जो मानव जाति का सबसे बडा गुण है। इसीलिए विश्व के सभी मजहबों में मत-मतान्तर होने पर भी अहिंसा, शांति और धैर्य पर सभी एकमत हैं। सभी की शिक्षाओं में शान्ति और धैर्य की शिक्षा सर्वोपरी है। भारतीय संस्कृति का सार ’वासुदैव कुटुम्बकम’् का है। विविधता में एकता यहां की विशेषता है। सदियों से विभिन्न संस्कृतियां यहां एक साथ मिलकर रहती आयी हैं। वर्तमान पीढी का दायित्व है कि वह भविष्य की पीढी के लिए शान्ति और धैर्य की संस्कृति की मजबूत नींव रखे। जो विश्व को संकट की इस घड़ी में संबल देने का काम करेगी। शांति और धैर्य की विरासत को आगे सहेजने का काम 21वीं सदी में सबको मिलकर करना होगा। हमें संकट के इस दौर में मानवता को बचाने की मुहिम की रफ़तार और तेज करनी होगी, क्योंकि संकट के इस घड़ी में सबसे ज्यादा शांति और धैर्य की दरकार है।
(लेखिका- डॉ. नाज परवीन)

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