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पृथ्वी की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य  ( विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष ) 

पृथ्वी की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य  ( विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष ) 

भारतीय संस्कृति में पृथ्वी को माता मानकर हम इसे आदिकाल से पूजते आए हैं। हमारी इस वसुंधरा को स्वर्ग से भी महान कहा गया है । वेदों में बताई गई महत्ता सर्वविदित है। अथर्ववेद का विशेष सूक्त पृथ्वी सूक्त है। इसमें पृथ्वी को माता कहा गया है। इसके एक मंत्र का अंश है-- 'माता पृथिवी पुत्रो ऽह पृथिव्या:' इसका आशय है- 'पृथ्वी मेरी माता है और मैं इस पृथ्वी का पुत्र हूं ।' अथर्ववेद के पहले, दूसरे, पांचवें, सातवें और बारहवें कांड में पृथ्वी की स्तुति, रोगों का निवारण, पृथ्वी की महत्ता, वनस्पतियों का वर्णन, पृथ्वी के निर्माण से लेकर धरातल की विशेषताओं की व्याख्या की गई है। मानव सहित समस्त जैविक और अजैविक प्राणियों का जीवन पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु पर आधारित है। इन पांच तत्वों के बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है।
जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी पर बढ़ती पर्यावरणीय समस्याओं के निवारण और जन जागरूकता के लिए हम हर साल 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस मनाते हैं। इसकी शुरुआत 1970 में अमेरिका से हुई। वहां तत्कालीन सीनेटर गेलार्ड नेल्सन ने 22 अप्रैल को पर्यावरणीय दुष्परिणामों से दुनिया को चेताया और पृथ्वी को बचाने का आव्हान किया। इस कार्यक्रम से 1990 में 141 देश जुड़ गए थे और आज 192 से ज्यादा देश इसमें शामिल हो चुके हैं।
इस दिन विश्व भर में विभिन्न देशों की सरकारें , स्वैच्छिक संगठन, पर्यावरण प्रेमी, बुद्धिजीवी नागरिक, शैक्षिक संस्थाएं, छात्र- छात्राएं तथा स्थानीय संस्थाएं कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं । इस समय कोरोना महामारी के संकट से समूचा विश्व जूझ रहा है। तब और भी जरूरी हो जाता है कि हम इस पृथ्वी को कैसे बचाएं?
यह सत्य है कि हमारे पास केवल एक ही पृथ्वी है। ऐसा कोई दूसरा ग्रह नहीं है , जहां जीवन हो। ऐसी स्थिति में पृथ्वी की रक्षा करना हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए। हमें विदित है कि पृथ्वी के तीन हिस्से में जल है और केवल एक हिस्से में ही भूभाग है। इस भूभाग पर हमारी जीवनदायिनी वनस्पतियां हैं । इसी भूभाग पर अनेक पर्वत और पठार, नदियां, मैदान, जलाशय, मरुस्थल, कृषि भूमि, दलदली भूमि और अनेक प्रकार के खनिज संसाधन मौजूद हैं। इस धरती के गर्भ में अनगिनत जैविक और अजैविक तत्वों की एक विशाल श्रंखला है। इनका पोषण वनस्पति, कृषि और वनों से होता है। इसी तरह जलीय जीवों का जीवन समुद्र नदियों और जलाशयों पर निर्भर है।
प्रकृति के संतुलन से ही सृष्टि का संचालन होता है, परंतु मनुष्य ने ऐसे विकास को अपनाया, जिसमें भौतिक सुखों की सुविधाएं तो हैं, परन्तु वह प्रकृति से दूर होता चला गया। वह धनी और शक्तिशाली हो गया। उसने समुद्र के गर्भ से भारी मात्रा में तेल निकाला। हजारों तेल के कुएं खोदे। उनका अंधाधुंध दोहन किया। यहां तक कि उसने पाताल तक पहुंचने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी तरह मनुष्य ने जलीय जीवों को मारकर खाने की एक होड़ पैदा कर दी। पक्षियों और जानवरों का शिकार करके वह उन्हें अपना भोजन बनाने लगा। वनों को उजाड़कर वह इमारती लकड़ी का उपयोग करने लगा। पेड़ों को काटकर उसने महानगर बनाए। बड़ी-बड़ी इमारतें बनाई और सड़कें बनाईं।
देश की नदियों के जल प्रवाह को रोककर मनुष्य ने बड़े-बड़े बांध खड़े किए। इन बांधों से बिजली बनाई और ऊंचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाया। सरप्लस बिजली अनेक राज्यों को बेचकर भी पैसा बनाया। देशभर में बड़े-बड़े उद्योग लगाए । इन उद्योगों का तरल और ठोस अपशिष्ट नदियों में छोड़ा। उसने जहरीले रसायन नदियों में छोड़े। महानगरों और शहरों के सीवरेज का गंदा पानी ट्रीटमेंट किये बिना नदियों में छोड़ा।
हमें याद है पहले खेतों में जैविक खाद का उपयोग होता था । अब रासायनिक खाद डाली जाती है। इसमें नाइट्रेट और फास्फेट होता है। यह पानी में घुलकर नहरों -जलाशयों और नदियों में जाता है। खाद के बाद फसलों में कीटनाशक का उपयोग किया जा रहा है। इससे भी भूमि जहरीली होती जा रही है।
बड़े छोटे सभी तरह के उद्योगों से निकलने वाला कचरा धरती को प्रदूषित कर रहा है। इस तरह मनुष्य हजारों तरह से इस पृथ्वी को आहत कर रहा है। आज पृथ्वी एक प्रकार से घायल अवस्था में कराह रही है। प्रवाह रुकने से नदियां सूखकर दम तोड़ती जा रही हैं। वायु, भूमि और जल प्रदूषण बढ़ रहा है। पृथ्वी की इस दुर्दशा का जिम्मेदार स्वयं मनुष्य ही है । प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से ही प्राकृतिक और मानवजनित आपदाएं आती हैं।
यह दुखद पहलू है कि वह बड़ी विपदाओं का साक्षात्कार कर रहा है, फिर भी अपने अहंकार के कारण उसकी आंखें नहीं खुल रही हैं। वह स्वयम को अब भी शक्तिशाली समझने की भूल कर रहा है। आज मनुष्य को अपनी गलतियों से सबक लेना चाहिए। पृथ्वी की सुरक्षा करना हर मनुष्य का कर्तव्य है। प्रकृति से जुड़कर यदि हम अपनी जीवनशैली अपनाएंगे , तभी हम पृथ्वी की सुरक्षा करने में सक्षम हो सकेंगे।
(लेखक-श्रीराम माहेश्वरी)

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