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(लघुकथा) अपराधबोध 

(लघुकथा) अपराधबोध 

अस्पताल के आई.सी.यू.वार्ड के एक बेड पर पड़े आशा-निराशा के सागर में डूबते-उतराते हुए वर्मा जी कुछ दिन पुरानी यादों में खो गए। 
"कल हनुमान जयंती है,शर्मा जी।"
"हां,है तो वर्मा जी। "
"तो ?"
"कल हम सुबह से पूजा के लिए नगर के सबसे बड़े हनुमान मंदिर चलेंगे। "
"क्यों ?"
"अरे,क्यों क्या ?हम हर साल तो जाते हैं,और वहां की आरती में शामिल होते हैं। " वर्मा जी ने कहा। 
"पर,इस साल कोरोना के चलते हमें 'सोशल डिस्टेंशिंग'
का ध्यान रखना है। शर्मा जी बोले। 
"अरे कुछ नहीं होता है,हम सुबह से चलेंगे। "वर्मा जी ने कहा। 
"नहीं वर्मा जी,आपको जाना है तो जाओ,मैं तो घर में ही भगवान की पूजा कर लूंगा। मैं तो 'सोशल डिस्टेंशिंग' मानूंगा। "शर्मा जी ने सारगर्भित बात कही। 
पर वे न माने। सुूबह से ही मंदिर पहुंच गए। वहां उन जैसे अनेक भक्तों का जमावड़ा था। सबने एक साथ समूह बनाकर आरती की,और आज अस्पताल में भर्ती कोरोना के शिकंजे में जकड़े वर्मा जी के पास पश्चाताप के अलावा और कुछ भी शेष नहीं था। 
"आपको,बोतल चढ़नी है। " एक आवाज़ आई। 
नर्स की आवाज़ सुनते ही उनकी तंद्रा भंग हुई,और वे हक़ीक़त की दुनिया में लौटकर अपराधबोध के साथ यही सोचने लगे कि ,वास्तव में 'सावधानी में ही सुरक्षा है। '
(लेखक-प्रो.शरद नारायण खरे)
 

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