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क्यों बेवक्त चले गए तुम इरफान 

क्यों बेवक्त चले गए तुम इरफान 

वो स्टार नहीं ऐक्टर थे। वाकई थे क्योंकि जब उनके साथ के लोग स्टार बनने दौड़ रहे थे तब वो ऐक्टर बनने का रास्ता खोज रहे थे। वो कामियाब भी हुए और मेहनत व लगन से  छोटे किरदार के रास्ते बड़ी शख्सियत बने और अपनी प्रतिभा की पहचान पूरी दुनिया को कराई। इरफान खान एक बेहतरीन ऐक्टर, जिन्दा दिल इंसान, दिल से किरदार जीने वाली शख्सियत बल्कि यूँ कहें कि हर किरदार ऐसा मानों स्क्रीन पर नहीं हकीकत में हो।
आपने काम से दुनिया का दिल जीतने वाले बिरले  कलाकारों में शामिल इरफान का जन्म 7 जनवरी 1967 को जयपुर में हुआ था। परिवार मूल रूप से राजस्थान के टोंक का रहने वाला था सो बचपन वहीं बीता। बाद का समय जयपुर में जहाँ परकोटे वाले सुभाष चौक में उनके परिवार की एक टायरों की दुकान थी। इरफान क्रिकेटर बनना चाहते थे लेकिन उस समय तंगी के चलते उन्होंने थियेटर का रुख किया और दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा चले गए। कुछ ही दिनों बाद पिता का निधन हो गया। यहीं से तंगी की शुरुआत हुई फिर भी जैसे-तैसे दिल्ली नहीं छोड़ी और थियेटर के गुर सीखे। दिल्ली से निकल कर मुंबई का रुख किया लेकिन फिल्मों में काम नहीं मिला। मजबूरन ही सही टीवी सीरियल्स में छोटी-छोटी भूमिकाएं भी बतौर जूनियर ऐक्टर बन निभाईं। भारत एक खोज, स्पर्श, चन्द्रकान्ता जैसे तमाम सीरियल्स में काम किया।  उनकी मेहनत, जज्बे और काबिलियत के पंखों ने आखिर हौंसलों की वो उड़ान उड़ी की देखते ही देखते उन्होंने फिल्म इण्डस्ट्री को अपनी प्रतिभा का कायल बना दिया। 
1988 में वह पल भी आया जब कोई फिल्म दुनिया में धूम मचा रही हो उसमें इरफान भी दिखें। भले ही बहुत छोटा सा रोल हो ऊपर से एडिटिंग की कैंची चल जाए जिससे इरफान खुश न हों। लेकिन उनका जितना अभिनय दिखा उसमें ही अपनी प्रतिभा दिखला दी। यह थी मीरा नायर की दुनिया भर में बहुचर्चित फिल्म सलाम बॉम्बे। इसमें चंद सेकेण्ड का अपना रोल निभा रहे दुबले-पतले 19-20 के इरफान पर बरबस ही ध्यान टिक जाता है जो सड़क किनारे बैठकर लोगों की चिट्टियाँ लिखते।उनका गजब का अंदाज और डायलॉग कि  “बस-बस 10 लाइन हो गया आगे लिखने का 50 पैसा लगेगा, माँ का नाम पता बोल...”। हर किसी को खूब भाया। इरफान के ऐसे ही गॉड गिफ्ट ने उनको देखते-देखते हॉलीवुड और बॉलीवुड में खास पहचान दिला दी। 
2001 में ब्रिटिश फिल्म वॉरियर से इरफान को फिल्मी कैरियर में नया मुकाम मिला। उसके बाद 2002 में फिल्म मकबूल से भी खूब शोहरत बटोरी। सन् 2004 में फिल्म हासिल में इरफान के निगेटिव किरदार ने उस कामियाबी की ऊंचाई पर पहुंचाया जहाँ इरफान खुद को ले जाना चाहते थे। फिर तो वो सिलसिला शुरू हुआ जिसने कभी थमने का नाम ही नहीं लिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इरफान को ख्याति दिलाने वाली फिल्मों में जहाँ 2001 में द वॉरियर, 2006 में द नेमसेक, 2007 में  द दार्जिलिंग लिमिटेड, 2007 में ही ए माइटी हार्ट, 2008 में ऑस्कर पुरस्कार विजेता स्लमडॉग मिलेनियर, 2009 में न्यूयॉर्क आई लव यू,  2012 में द अमेजिंग स्पाइडर मैन, 2012 में ही  लाइफ ऑफ पाई, 2015 में जुरासिक वर्ल्ड और 2016 में इन्फर्नो शामिल हैं। वहीं भारतीय फिल्मों में 2009 में बिल्लू, 2011 में पान सिंह तोमर, 2011 में ही ये साली जिंदगी, 2012 में सात खून माफ, 2013 में लंच बॉक्स, 2014 में  हैदर, 2015 में पीकू, 2015 में ही तलवा,  2017 में हिंदी मीडियम, 2018 में करीब करीब सिंगल, 2020 में अंग्रेजी मीडियम जैसी फिल्मों में अभिनय के लिए जाना जाता है। इरफान खान की संजीदगी से अभिनय की कला उन्हें औरों से अलग करती थी। तभी तो हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक उन्हें विरला, तबीयत से किरदार निभाने वाला एक जिन्दा दिल सुपर ऐक्टर मानता था। जबरदस्त संघर्षों से भरी शुरुआत में इरफान कई बार टूटे और संभले। संघर्ष का एक वो भी दौर था जब टीवी सीरियल्स में छोटे-मोटे रोल करके इरफान ऊब चुके थे तो उन्होंने ऐंक्टिंग की दुनिया को छोड़ने का इरादा कर लिया। वो फिल्म इण्डस्ट्री की चकाचौध भरी दुनिया को छोड़ वापस जयपुर लौटने का भी मन बना चुके थे। लेकिन उनको चिन्ता थी कि लौटने पर वो घर कैसे संभालेंगे? इसी उधेड़बुन में मुंबई में ही संघर्ष करते रहे तभी अचानक कामियाबी ने उनके कदम चूके फिर वो वापस मुड़कर नहीं लौटे। उनका अपने घर-परिवार से गहरा लगाव था। वो हर मकर संक्रान्ति पर जयपुर आना नहीं भूलते थे जहाँ अपने बचपन के साथियों के साथ पतंग उड़ाते थे। टोंक में अपने मामा के घर जाना नहीं भूलते थे। अपने 30 साल के फिल्मी सफर में  50 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। फिल्में भी एक से बढ़कर एक। कई ने प्रतिष्ठित अवार्ड हासिल किए। इरफान वो अभिनेता थे जिनकी आंखों में शिकायत, शरारत और फिर माफी एक के बाद एक तीनों दिखा करती थी। वो बिरले ऐक्टर थे जिनकी आँखें एक्टिंग की दमदार कड़ी थी। महज 53 साल की उम्र में न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर जैसे दुर्लभ कैंसर के चलते उनका निधन हुआ। सन् 2018 में इस बीमारी का पता चला। इलाज के लिए विदेश भी गए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ और आखिर 29 अप्रेल को दुनिया से अलविदा कह ही दिया।  खराब सेहत की वजह से वह अपनी आखिरी फिल्म अंग्रेजी मीडियम का प्रमोशन भी नहीं कर पाए। यह अजीब इत्तेफाक था कि 4 दिन ही पहले ही उनकी 95 बरस की माँ ने दुनिया को अलविदा कहा और अम्मा बुला रही है कह कर खुद चले गए।  
(लेखक-ऋतुपर्ण दवे)

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