YUV News Logo
YuvNews
Open in the YuvNews app
OPEN

फ़्लैश न्यूज़

आर्टिकल

कोरोना संक्रमण के बाद बचेंगे भारत के समाचार पत्र ?

कोरोना संक्रमण के बाद बचेंगे भारत के समाचार पत्र ?

भारत में 40 दिन के लॉक डाउन के बाद यदि सबसे ज्यादा बुरा असर किसी पर पड़ा है, तो वह प्रिंट मीडिया है। 1990 के बाद से प्रिंट मीडिया ने काफी ऊंची उड़ान भरी थी। भारत के राज्य एवं प्रादेशिक समाचार पत्रों की पृष्ठ संख्या तथा प्रसार संख्या बड़ी तेजी के साथ बढ़ी। जिले एवं संभागीय स्तर से प्रभावी लघु एवं मध्यम श्रेणी के समाचार पत्र प्रकाशित होना शुरु हुए। औद्योगिक विस्तार एवं वैश्विक व्यापार संधि को देखते हुए भारत में राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक समाचार पत्रों में विज्ञापन की संख्या बढ़ी। बड़े-बड़े समाचार पत्र संस्थानों की आय भी प्रति वर्ष तेजी के साथ बढ़ी। जिसके कारण समाचार पत्र संस्थानों ने वर्तमान दायित्व की सोच को ही बदल दिया। जो मीडिया पहले अपने पाठकों के लिए उत्तरदाई होता था। पाठकों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए समाचारों, लेख एवं अन्य पठनीय सामग्री को पाठकों तक पहुंचाता था। समाचार पत्र की पहचान उसकी अपनी विचारधारा और उसके संपादक से हुआ करती थी। 1990 के बाद समाचार पत्र संस्थानों में भी औद्योगिक सोच का विस्तार हुआ। वैश्वीकरण का प्रभाव मीडिया संस्थानों में इस कदर बढ़ा, कि संपादकों एवं रिपोर्टर के स्थान पर मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव के लोग प्रिंट मीडिया में बड़ी तेजी के साथ भारी भरकम वेतन लेकर कार्य करने लगे।
प्रिंट मीडिया संस्थानों की पूरी सोच ही बदल गई। औद्योगिक एवं राजनैतिक हितों के लिए प्रिंट मीडिया काम करने लगा। देखते ही देखते 2010 तक संपादकों का स्थान ऐसे लोगों ने ले लिया, जो व्यापारिक दृष्टि से प्रिंट मीडिया के संस्थानों के लिए मुफीद थे। इसी तरह प्रिंट मीडिया ने राजनेताओं औद्योगिक और व्यापारिक संस्थानों के हितों के लिए उनसे सौदेबाजी शुरू कर दी। इस सौदेबाजी में प्रिंट मीडिया और बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संस्थानों का बड़ा आर्थिक फायदा हुआ। लेकिन इसी बीच आम जनता की दूरी मीडिया संस्थानों से बढ़ती चली गई।
समाचार पत्रों की पृष्ठ संख्या बड़ी तेजी के साथ बढ़ी। राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक समाचार पत्रों में विज्ञापन की संख्या बढ़ी। तेजी के साथ बढ़ी अखबारों का बहुत बड़ा स्पेस विज्ञापनों ने ले लिया। पैसा लेकर राजनीतिक दलों और औद्योगिक संस्थानों के हित में मीडिया ने काम करना शुरू कर दिया। मीडिया में काम करने लोगों का तेजी के साथ वेतन बढ़ा। जिस तरह व्यापारिक संस्थानों में बिक्री या मुनाफे के लक्ष्य निर्धारित होते थे। वैसे ही लक्ष्य मीडिया संस्थानों ने बनाना शुरु कर दिए। मीडिया संस्थानों का 80 से 90 फ़ीसदी राजस्व, कागज, प्रिंटिंग, वितरण व्यवस्था, प्रसार संख्या बढ़ाने में खर्च होने लगी। 1990 के बाद से समाचार पत्र और मीडिया पूरी तरह विज्ञापन की आय पर आधारित हो गया। पृष्ठ संख्या बढ़ जाने से कागज का खर्च बढ़ा। प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए पाठकों के लिए उपहार योजनाएं चलाई गई। अखबारों की पृष्ठ संख्या कई गुना बढ़ जाने के बाद भी समाचार पत्र की  कीमतों को और कम किया गया। जिसके कारण पाठकों की रूचि बदली। समाचार पत्रों की बढ़ी हुई पृष्ठ संख्या में जो सामग्री प्रकाशित हुई, उससे पाठकों का वैचारिक दृष्टि से कोई लेना-देना भी नहीं रहा। पाठक यह सोचकर अखबार लेता रहा, कि रद्दी में अखबार बेचने के बाद बिल से ज्यादा पैसा रद्दी से मिल जाता है। इसके साथ ही पाठकों की रुचि बाजारवाद की ओर ले जाने का काम मीडिया संस्थानों ने किया। जिसके कारण राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक समाचार पत्रों में प्रसार संख्या बढ़ाने और विज्ञापन मैं एकाधिकार करने की जो होड़ मची थी। पिछले 2 से 3 वर्षों में इसी होड़ के कारण अब मीडिया संस्थानों का अस्तित्व ही संकट में आ गया है।
2016 के बाद से आर्थिक मंदी तथा कोरोनावायरस संक्रमण के एक ही झटके में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया है। 2016 के बाद से ही प्रिंट मीडिया अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था, विज्ञापन कम होता जा रहा था खर्च हर साल बढ़ता ही जा रहा था। जीएसटी के आने के बाद प्रिंट मीडिया की कमर बड़ी तेजी के साथ टूटी। स्वतंत्रता के पश्चात से कभी भी न्यूज़ प्रिंट विज्ञापन की आय में कोई टैक्स नहीं था। जीएसटी में कागज और विज्ञापन दोनों में जीएसटी लागू कर दिया गया। इसी समय आर्थिक मंदी के कारण रियल एस्टेट, एजुकेशन सेक्टर, ऑटोमोबाइल सेक्टर, आईटी सेक्टर तथा टेलीकॉम सेक्टर में मंदी का दौर आया। विज्ञापनों में अंडर कटिंग शुरू हुई। विज्ञापन की आय कम हुई, खर्च बढ़ गए। इसी बीच कोरोनावायरस का संक्रमण आया। 40 दिन का लाकडाउन लागू किया गया। संक्रमण का भय इतना फैला कि लोगों ने समाचार पत्र लेना ही बंद कर दिया। लाकडाउन की शर्तें इतनी कठिन थी, कि पेपर पहुंचाना भी बड़ा मुश्किल था हाकरों ने भी डर के मारे अखबार बांटने बंद कर दिए। पाठकों ने अखबार लेना बंद कर दिया। समाचार पत्रों की आय लगभग खत्म हो गई। लेकिन समाचार पत्रों के खर्च तथा लायबिलिटी उतनी ही बनी रही। राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक तथा क्षेत्रीय समाचार पत्रों करोड़ों और लाखों रुपए प्रतिमाह का है। विज्ञापन के अलावा आय का और कोई विकल्प उनके पास नहीं है। केंद्र एवं राज्य सरकारों ने भी पिछले वर्षों की तुलना में विज्ञापन कम कर दिए। लाक डाउन के दौरान कुछ डिस्प्ले विज्ञापनों को छोड़कर अन्य सरकारी विज्ञापन भी बंद रहे। वही औद्योगिक एवं व्यापारिक संस्थानों से भी विज्ञापन आना बंद हो गए। ऐसी स्थिति में प्रत्येक समाचार पत्र के ऊपर उसकी हैसियत के अनुसार लाखों करोड़ों रुपए की नई देनदारी खड़ी हो गई है। पिछले वर्षों में प्रतिस्पर्धा के कारण आय और खर्च का संतुलन बिगड़ने के बाद भी प्रिंट मीडिया अपना अस्तित्व बनाए हुआ था। किंतु जैसे ही 40 दिन का लाक डाउन लागू हुआ। कोरोनावायरस के संक्रमण को लेकर विज्ञापन खत्म हो गया। विज्ञापन दाताओं ने रद्दी के भाव में भी अखबार लेना स्वीकार नहीं किया। जिसके कारण प्रिंट मीडिया समाप्त होने की स्थिति में पहुंच गया है। केंद्र एवं राज्य सरकारों तथा औद्योगिक संस्थानों ने यदि प्रिंट मीडिया की सहायता नहीं की। यही स्थिति 1 माह और चल गई, तो प्रिंट मीडिया को अपना अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल होगा। मीडिया संस्थानों की अभी तक जो हेसियत बना रखी थी। एक बार फिर उन्हें 1990 के दशक में वापस लौटने की स्थिति में आना पड़ेगा। वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते भारतीय मीडिया जगत इन दिनों अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा विज्ञापनों का भुगतान भी समय पर नहीं किया जा रहा है। भारत का मीडिया केवल विज्ञापनों की आय पर आश्रित था। विज्ञापन कम होने की दशा में या तो समाचार पत्रों के रेट बढ़ाकर अखबार को चालू रखना एकमात्र विकल्प है। समाचार पत्र के लिए सूचनाएं एकत्रित करना, उनका संपादन करने, प्रिंटिंग, कागज, वेतन और वितरण इत्यादि में मीडिया संस्थानों के कुल राजस्व का लगभग 90 फ़ीसदी राशि खर्चों में जाती है। कोरोना वायरस संक्रमण के कारण जो स्थितियां निर्मित हुई हैं। उसमें 2 माह के अंदर ही मीडिया की देनदारियां काफी बढ़ गई हैं। मीडिया संस्थानों के ऊपर बैंकों के करोड़ों रुपए के कर्ज भी हैं। ब्याज, बिजली, भारी भरकम मशीनों और अन्य प्रशासनिक बहुत ज्यादा हैं। सरकार की सहायता इन्हें त्वरित रुप से नहीं मिली, तो सबसे पहले और सबसे बुरा असर मीडिया पर ही देखने को मिलेगा। सभी मीडिया संस्थान छोटे हो या बड़े सभी चिंतित हैं। अब देखना यह है कि सरकार लघु एवं मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों और बड़े समाचार पत्र समूह के लिए कौन सी नीति अपनाती है। पिछले वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों ने जिस तरह से कुछ बड़े-बड़े मीडिया समूह को ही प्रभावी मीडिया मान लिया था। यही मीडिया सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है। मीडिया संस्थान सरकार की तरफ टकटकी लगाकर देख रहे हैं।  जिस तरीके के खर्चे मीडिया ने बना रखे हैं। उसकी स्वयं की कोई आर्थिक व्यवस्था का सिस्टम नहीं है। भारत में पाठक को सबसे कम कीमत में समाचार पत्र देने, घाटे की अर्थव्यवस्था की भरपाई विज्ञापन से करने वाले मीडिया संस्थानों के सामने केवल दो ही विकल्प रह गए हैं। वह अपनी पृष्ठ संख्या को बहुत सीमित कर दें। अपने समाचार पत्र के मूल्य को बढ़ा दें। अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए मीडिया संस्थानों को एक बार फिर अपने पाठकों के हितों का ध्यान रखना होगा। पाठक जिस समाचार पत्र को पसंद करेगा, वही अस्तित्व में बना रहेगा।
 (लेखक-सनत जैन )

Related Posts