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‘लॉक डाउन’ में क़ैद हमारे बच्चों के सपनों की दुनिया ! 

‘लॉक डाउन’ में क़ैद हमारे बच्चों के सपनों की दुनिया ! 

क्या हम सोच पा रहे हैं कि हमारे घरों और पास-पड़ौस में जो छोटे-छोटे बच्चे बार-बार नज़र आ रहे हैं उनके मनों में इस समय क्या उथल-पुथल चल रही होगी ? क्या ऐसा तो नहीं कि वे अपने खाने-पीने की चिंताओं से कहीं ज़्यादा अपने स्कूल, अपनी क्लास ,खेल के मैदान, लाइब्रेरी और इन सबसे भी अधिक अपनी टीचर के बारे में सोच रहे हैं और हमें पता ही न हो ? कोरोना और लॉक डाउन, बच्चों के सपनों और उनकी हक़ीक़तों से बिलकुल अलग है। उन्हें डर कोरोना से कम और अपने स्कूलों तक नहीं पहुँच पाने को लेकर ज़्यादा लग रहा है। क्या उनके बारे में,उनके सपनों के बारे में भी हमारे यहाँ कहीं कोई सोच रहा है ?स्कूल जाने को लेकर तैयार होने का उनका सुख क्या इस बात से अलग है कि जो उनसे बड़े हैं किसी भी तरह घरों से बाहर निकलने को लेकर छटपटा रहे हैं ?
योरप के देश द नीदरलैंड्स के एक शहर हार्लेम की एक बालवाड़ी (किंडर गार्टन) की एक अध्यापिका को लेकर एक छोटा सा समाचार चित्र सहित किसी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म-ट्विटर पर प्रसारित किया है।समाचार में बताया गया है कि किस तरह से बालवाड़ी की एक अध्यापिका अपने 23 बच्चों को मिस कर रही हैं।हमारे सोच से परे हो सकता है कि अपने बच्चों को मिस करते हुए अध्यापिका ने क्या किया होगा ! अध्यापिका ने अपने सभी बच्चों को नन्ही-नन्ही 23 डाल्ज़ (Dolls) में बुन दिया। प्रत्येक डॉल को उन्होंने बालवाड़ी के हरेक बच्चे का नाम भी दे दिया जैसे जुलियन ,ल्यूक,लिली,जायरा ,बोरिस, आदि,आदि।बच्चों को इसका पता चला और उन्होंने पूछ लिया कि टीचर की डॉल कहाँ है ?तो अध्यापिका ने भाव-विभोर होकर अपने आपको भी एक गुड़िया के रूप बुन लिया और बच्चों की डाल्ज़ के साथ ही बालवाड़ी के कमरे में सजा दिया।बच्चे जब 11 मई को स्कूल पहुँचेंगे ,उनकी टीचर उन्हें अपनी बाहों में भरेंगी और हरेक बच्चे को उसके नाम की डॉल सौंप देंगी।
केवल मोटा-मोटा अनुमान है जो कम ज़्यादा भी हो सकता है कि हमारे यहाँ कुल स्कूलों की संख्या तेरह लाख से अधिक है।छह से 14 वर्ष की आयु के बीच के स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बीस करोड़ से ज़्यादा है।यानि कि एक पूरा का पूरा उत्तर प्रदेश भरके बच्चे।क्या हमारे स्कूल, हमारी बालवाड़ियाँ, आंगनवाड़ियां, आदि अपने बच्चों की वापसी को लेकर कुछ इसी तरह का सोच रही हैं ? उनको वैसे ही मिस कर रही हैं जैसा कि उस छोटे से देश के एक शहर की अध्यापिका कर रही हैं ? हम इनमें वे बालवाड़ियाँ और आंगनवाड़ियाँ भी इनमें शामिल कर सकते हैं जिनमें एक-एक कमरे में कई-कई बच्चे एकसाथ ज़मीन पर बैठकर पढ़ाई करते हैं।
दूसरे देशों में इस समय महामारी को लेकर कम और उसके ख़त्म हो जाने के बाद मिलने वाली दुनिया के बारे में ज़्यादा बातें हो रही हैं।इन सब में भी सोच के केंद्र और चिंता में बच्चों का भविष्य प्रमुखता से है ।प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकानमिस्ट’की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में इस समय कोई सौ करोड़ से ज़्यादा बच्चे (भारत की आबादी के बराबर लगभग )अपने-अपने स्कूलों से बाहर हैं ।कई देशों में तो बच्चे पिछले चार महीनों से अपने स्कूल नहीं जा पाए हैं।रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि स्कूलों के बंद रहने का सबसे ज़्यादा असर ग़रीब और किशोर अवस्था के बच्चों पर पड़ रहा है।
अमेरिका में इस समय बहस यह भी चल रही है कि बदली हुई परिस्थितियों में स्कूलों का स्वरूप कैसा होगा ? क्या कक्षाएँ पहले की तरह ही लग और चल पाएँगी ?अगर नहीं तो फिर क्या बच्चे एक-दूसरे से दूर-दूर बैठेंगे ?अगर ऐसा होता है तो क्या एक ही क्लास में अभी तक साथ-साथ पढ़ने वाले बच्चे अलग-अलग समयों पर स्कूल आएँगे ?क्या कक्षाएँ एक-एक दिन छोड़कर लगेंगी ? क्या बच्चे और अध्यापक मास्क लगाकर कक्षाओं में रहेंगे ?क्या बच्चों के शरीर के तापमान की रोज़ जाँच होगी ?बच्चों को लाने-ले जाने वाली बसों का फिर क्या होगा ? क्या उनके फेरे बढ़ाने पड़ेंगे ? अगर ऐसा हुआ तो सड़कों के ट्रैफ़िक पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव से कैसे निपटेंगे ? जिन बच्चों के अभिभावक काम करने घरों से बाहर जाते हैं क्या उन्हें भी अपनी दिनचर्या को नए सिरे से एडजस्ट करना पड़ेगा ?और भी बहुत सारी चिंताएँ।
बच्चे तो सारी दुनिया के एक जैसे ही होते हैं।उनकी डाल्ज़ भी लगभग एक जैसी ही बुनी और रंगों से भरी जाती हैं।हमारे यहाँ के बच्चे भी इन्हीं सब बातों को लेकर चिंतित भी हैं। उनके अभिभावक और अध्यापक-अध्यापिकाएं भी निश्चित ही होंगी ही।पर क्या जिन लोगों को बच्चों के सपनों पर फ़ैसले लेना है वे इन सब चिंताओं के लिए वक्त निकाल पा रहे हैं ? क्या आपको पता है कि आपके सूबे के स्कूली शिक्षा मंत्री कौन हैं ?उनका नाम क्या है ?उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है ?और यह भी कि इस समय उनकी सबसे बड़ी चिंता किन चीज़ों को लेकर है ? उस चिंतामें आपके बच्चों के स्कूल शामिल हैं या नहीं?
(लेखक-श्रवण गर्ग )

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