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भारतीय साहित्य के ध्रुव तारे : रवीन्द्र नाथ टैगोर   (7 मई जन्मतिथि पर विशेष)

भारतीय साहित्य के ध्रुव तारे : रवीन्द्र नाथ टैगोर   (7 मई जन्मतिथि पर विशेष)

    ”मैं जीवन मे तभी विश्वास करता हूँ जब तक इसमें विश्व-बंधुत्व की भावना है। मैं मानवी षक्ति से मनुष्य की मुक्ति का प्रचार करता हूँ। मैं ज्ञान का शत्रु नहीं बन सकता क्योंकि मैं ऐतिहासिक मानव का समर्थक हू, जो पशुता को ललकारता है और अंत में विजयी रहता है।“ रवीन्द्रनाथ सही अर्थों में एक भारतीय प्रतिभा थे। गुरूदेव टैगोर का जन्म 8 मई सन 1861 को हुआ था, टैगोर वंश प्रतिष्ठा, समृद्धि, कला, मर्मज्ञता, और  विद्धता में बहुत समय से ख्यात चला आ रहा है। सामाजिक और सांस्कृतिक सुधारों में भी यह वंश अग्रणी था। रवीन्द्र नाथ के पितामह द्वारिकानाथ ठाकुर और पिता देवेन्द्र नाथ ठाकुर  वहां समाज के लब्ध प्रतिश्ठा नेताओं मे से थे। द्वारिकानाथ ठाकुर वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होने इंग्लैण्ड जाकर विदेशों-गमन संबंधी पाबंदी को तोडा था। रवीन्द्रनाथ ने अपने पिता से ध्यान, प्रार्थना, एकांत प्रेम, षक्ति और उपासना जैसी बहुत सी महत्वपूर्ण चीजें सीखी थी। रवीन्द्रनाथ की माता शारदा देवी का निधन बाल्यकाल में ही हो गया था। 12 वर्ष की उम्र मे ही उन्होने पृथ्वीराज-पराजय नामक नाटक लिखा। दो वर्ष बाद 1874 में उन्होने सेक्सपियर के ”मैकबेथ“ नाटक का बंगला में अनुवाद किया। उनकी आरंभिक रचनाएं भी अत्यंत उत्कष्‘ट थीं। पर पिता के संसर्ग में उनकी बौद्धिक प्रतिभा के साथ आधात्यमिक दार्शनिक भी उद्बुद्ध हो रहा था। उनके कवि के साथ उनका दार्शनिक भी उद्बुद्ध हो रहा था। सारा चेतन जगत उनको प्रेममय प्रतीत होने लगा था। सन 1893 में उनका परिणय मृणालिनी देवी के साथ संपन्न हो गया। बृद्ध पिता के कहने पर कलकत्ता छोड़कर वे अपनी जमींदारी के गांव स्यालदा मे चले गए। वहां के शांत और एकांत वातावरण  में उनको बहुत आनंद प्राप्त हुआ। कुछ ही समय में लोग उनकी तुलना अंग्रेजी महाकवि ”षैली“ से करने लगे। अपने ग्राम निवास काल मे उन्होने अच्छे-अच्छे निबंधों  और नाटकों का ढेर तो लगा ही दिया उत्कृष्ट कहानियों और कविताओं की भी परंपरा खड़ी कर दी। मानसी,बलिदान,चित्रांगदा,सोनारतरी, चित्रा, और उर्वशी अपनी छटा से दिगदिगांत को चमत्कृत कर उठी। 
    शांतिनिकेतन टैगोर का सबसे बड़ा स्मृति चिन्ह है। 1901 में इसका शिलान्यास हुआ इस विद्यालय का उद्देश्य पश्चिमी सिया प्रणाली को कुछ उपयोगी अंश में ग्रहण करते हुए भी प्राचीन आर्शो की प्राप्ति थी। विदेशों से भी आ आकर छात्र उसमें प्रविष्ट होने लगे। विभिन्न देशों की प्रतिभाएं वहां आकर एकत्र हुई और टैगोर को अपना स्वप्न साकार करने में विशेष सफलता हुई। दीनबंधु एण्ड्रयूज और पीपर्सन के नाम इस संबंध में विशेष उल्लेखनीय हैं। अपने जीवन के दूसरे अध्याय मे प्रिय परिजन को आकस्मिक वियोग के कारण टैगोर का जीवन अत्यंत दुखमय हो गया। विद्यालय को आरंभ हुए अभी एक वर्ष भी नहीं बीता था कि कविपत्नी मृणालिनी देवी का निधन हो गया। कवि को मर्मान्तक पीडा हुई। दो वर्ष बाद ही उनकी दूसरी कन्या की भी मृत्यु हो गई। इसके दो वर्ष बाद 1906 में उनके बड़े पुत्र की मृत्यु हो गईं, इन भीषण प्रहारों के कारण उनकी आत्मा जर्जर हो गई। उनमें हृदय वेदना का साम्राज्य छा गया। ”स्मरण“”नौका डूबी“ और खैवेद्या रचनाएं कवि के संवेदनशीलता हृदय के उद्भारों से ओत-प्रोत हैं। तत्पश्चात ......... की दशा में उन्होने इंग्लैण्ड को प्रस्थान किया। इसी बीच में उनकी बंगला-कविताओं के संग्रह ”गीतांजलि“ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ। यह अनुवाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वयं किया था। इस छोटे से कविता संग्रह ने उनकी प्रतिष्ठा विश्वव्यापी बना दिया। इंग्लैण्ड से वह अमेरिका गए और 1913 में भारत लौट आए। तभी उनको ”गीतांजलि“ पर विश्व साहित्य का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार नोबेल मिला। उनका ”वाइट“ की उपाधि भी दी गई और विविध प्रकार से सम्मानित किया गया। शिक्षा के प्रणाली के विषय में कविवर टैगोर के जो स्वप्न थे उनका मर्त रूप से तो शांतिनिकेतन ही था,उनकी राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता की भावनाओं को ”विश्व-भारती“ में मूर्त रूप प्राप्त हुआ। विश्व-संस्कृति का सामंजस्यपूर्ण अध्ययन इन संस्थाओं का प्रधान लक्ष्य रहा है। नोबेल पुरस्कार तथा अन्य पुस्तकों से होने वाली आय को उन्होने विश्व-भारती के लिए ही व्यय किया। गुरूदेव टैगोर यहां एक अध्यापक के रूप में रहते थे। 
    गुरूदेव को राष्ट्र-निर्माण और समाज-सुधार के प्रयत्नों में भी विशेष प्रवृत्ति थी। जलियावाला बाग के हत्याकांड पर दुखी होकर उन्होने अंग्रेज सरकार को ”नाईट“ की उपाधि वापस कर दी थी। अपने अंग्रेज मित्रों के असंतुष्ट होने की चिंता किए बिना ही वे अंग्रेजों की घृणित शासन नीति की सदैव निंदा किया करते थे। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के प्रयत्न में वे अपनी वंश-परंपरा की भाँति ही दृढ थे। स्त्रियों और अछूतों को सहभागी बनाने बिना वह सामाजिक विकास को अपूर्ण मानते थे। वे अखिल मानवता के पक्षधर थे। युद्ध मे विनष्ट होती मानवता को देखकर उनको अपार कष्ट हुआ था। उनका कहना था ” मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है, अत: उस पर विश्वास भी मैं अंतिम क्षण तक करूँगा।“ विश्व-बंधुत्व उनका मंत्र था । वे प्रकृति के सच्चे उपासक थे। 
    वे भारतीय संस्कृति के  शलाका पुरूष थे। साहित्य का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे उन्होने अपने स्पर्श से सौंदर्य न प्रदाय किया हो। उन्होने भारतीय साहित्य के इतिहास में एक नए युग का प्रर्वतन किया। उनके जीवन में प्राचीनता और आधुनिकता का अपूर्व समन्वय देखने को मिलता था, वस्तुत: वह भारतीय संस्कृति .........और विश्व-बंधुत्व की भावनाओं का व्यापक आयाम विष्व के सन्मुख कलात्मक रूप से उपस्थित किया था। 8 अगस्त 1941 को वह इस लोक से चल दिए। लेकिन अंतिम यात्रा के पहले उन्होने लिखा ” मैने अवकाश ले लिया है मुझे बिदा दी, मेरे बंधुओं मैं तुम सबके सामने नतमस्तक हूँ। प्रस्थान कर रहा हूं। मैं अपने भवन की कुंजी तुम्हे वापस देता हूं और इस घर पर सभी अधिकारों को समर्पित करता हू। मुझे केवल तुम्होर कृपापूर्ण षब्दों की चाह है। हम बहुत दिनों के पड़ोसी हैं किन्तु मैं जो भी दे सका उससे अत्यधिक प्राप्त किया। आज दिवस का उदय हुआ है और जो दीप हमारे अंधेरे कोने को प्रभावित किए हुए था बुझ गया है और मैं अंतिम यात्रा के लिए तैयार हू। रवीन्द्रनाथ ही वह प्रेरक व्यक्ति हैं जो भीड़ से अलग हट कर सोचते हैं। तभी तो वह कह सके कि ”जदी तोर जग षुने केउ न आशे, तबै एकला चलो रे,“ यदि तुम्हारी पुकार कोई न भी सुने तो फिर अकेले ही अग्रसर हो जाओ। यह कहने की जरूरत नहीं कि दुनिया के अधिकांश महापुरूशों को लंबे समय तक अकेले ही चलना पड़ा है तभी वह विश्व-रंगमंच को प्रभावित कर पाए हैं। उनका मंत्र है-सतत आगे बढ़ना। तभी तो वह अपनी कविता के माध्यम से कहते हैं-” तुम अपने लहूलुहान पैरों से ही पथ के कांटों को कुचल डालो। कोई भी दिया जलाकर पथ का अनुसंधान तुम्हे न बताए। तूफानी रात मे तुम्हे देखकर कोई दरवाजा भी बंद कर ले, फिर भी उस ब्रजानल को अपने हृदय की एक मात्र ज्योति को प्रज्जवलित करते हुए आगे बढ़ते रहो। 
    ओ तुई रक्तमाया चरणतले,एकला दलो रे। 
जदि आलों न धरे, जदि झुड़ बादले आधार राते।, 
दये घरे तबे ब्रजानल निय एकला ज्वलो।। 
इतना ही नहीं गुरूदेव रवीन्द्र ने संसार की समस्याओं और संघर्श को छोड़कर बृहतर समाज से मुंह मोड़ कर मात्र अपनी मुक्ति चाहने वालो को कैसे सवाल आते है। देखने लायक है- 
विश्व जरि चले जाय कदिते-कदिते। 
आमि एक बसे रे मुक्ति समाधिते।। 
यानि जब पूरा विश्व जल रहा हो तो अकेले की समाधि कैसी? 
वस्तुत: टैगोर बीसवीं षताब्दी के शुरूआती चार दशकों तक भारतीय साहित्यकार के धुव तारे की तरह चमकते रहे। इनका लगभग 50 काव्य संग्रह है। लगभग 42 कहानियों, काव्य-संग्रहों, जिनमे तीन हजार से ज्यादा कविताएं संकलित हैं। लगभग 42 कहानियां कई महत्वपूर्ण नाटकों व उपन्यासों के सृजन का श्रेय इन्हे प्राप्त है। पोस्टमास्टर, खाता, त्याग, छुट्टी और करवली डाल, इनकी महत्वपूर्ण कहानियां हैं। बाल्मीकि प्रतिभा, काली यात्रा, राजा ओ रानी, विसर्जन, मुक्तधारा और राष्ट्र करवी इनके प्रमुख नाटक हैं। गोरा, घटे-बढे, योगायोग आदि इनके प्रमुख उपन्यास हैं जिस तरह से हमे कालिदास और तुलसीदास पर गर्व है उसी तरह से हम रवीन्द्रनाथ टैगोर पर भी गर्व कर सकते हैं। 
 (लेखक-वीरेन्द्र सिंह परिहार)     
 

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