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सीता वनवास का विवाद 

सीता वनवास का विवाद 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन के संबंध में वाल्मीकि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस को आधिकारिक तौर पर महत्त्व दिया जाता है। वैसे तुलसीदास के रामचरितमानस में भी वाल्मीकि रामायण को आधार बनाया गया है परन्तु महर्षि वाल्मीकि के रामायण तथा तुलसीदास के रामचरितमानस में अनेक अंतर भी हैं । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में वह विवादास्पद प्रसंग नहीं लिया है जिसे हम सीता वनवास के नाम से जानते हैं।
महर्षि वाल्मीकि को श्रीराम का समकालीन माना जाता है और इस कारण उनके वर्णन को प्रामाणिक माना जाता है लेकिन यह विषय महत्वपूर्ण है कि क्या महर्षि वाल्मीकि ने वास्तव में सीता वनवास का यह प्रसंग लिखा है। वृन्दावन के प्रसिद्ध संत अखंडानंद सरस्वती और अन्य विद्वानो ने इस विवाद की चर्चा की है। स्वामी अखंडानंद सरस्वती ने एक बार वाल्मीकि रामायण पर प्रवचन दिया था ।बाद में उनके प्रवचन  "वाल्मीकि रामायणामृत" नाम से प्रकाशित हुये ।इस ग्रंथ के  पृष्ठ ३०० में उन्होंने इस विवाद का उल्लेख किया है ।स्वामी अखंडानंद ने यह स्वीकार किया है कि " आज कल के अधिकांश विद्वान युद्ध कांड तक ही वाल्मीकि की रचना मानते हैं। उत्तर कांड को उनकी रचना नहीं मानते।"  
इस विवाद का कारण वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के अन्तिम सर्ग के अंतिम कुछ  श्लोक हैं  । इन श्लोकों में यह वर्णन मिलता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के राज्य में समस्त प्रजा धर्म में तत्पर रहती थी ।वह झूठ नहीं बोलती थी ।सभी लोग उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे और सबने धर्म का आश्रय ले रखा था। 
(श्लोक १०५, सर्ग १२८ )
इस के बाद  यह  विवरण मिलता है कि पूर्व काल में महर्षि वाल्मीकि  ने जिसकी रचना की यह वही आदि काव्य है।  इससे स्पष्ट है कि यह  श्लोक भी महर्षि वाल्मीकि ने नहीं लिखा -श्रृणोति इदं काव्यं पुरा वाल्मीकिना कृतम(श्लोक ११२ सर्ग १२८) । इससे स्पष्ट प्रतीत  होता है कि इस श्लोक के पूर्व कवि वाल्मीकि अपनी कलम को विराम दे चुके थे । इस श्लोक के बाद  अंतिम श्लोक में इस महाकाव्य का कीर्ति वर्णन है-
आयुष्यमारोग्यं करं यशस्यं
सौभ्रातृकं बुद्धिकरं शुभं च।
श्रोतव्यमेतन्नियमेन  सद्भि
राख्यानमोजस्करमृद्धिकामै: ।(श्लोक १२५ सर्ग १२८)
इस अंतिम श्लोक से भी यह प्रतिध्वनित होता है कि महर्षि वाल्मीकि इसके पूर्व अपने काव्य का समापन कर चुके थे ।इस श्लोक का अर्थ यह है कि यह काव्य आयु, आरोग्य ,यश, तथा भ्रातृप्रेम को बढ़ाने वाला है।अत:
समृद्धि की इच्छा रखने वाले सत्पुरुषों को इस का पाठ नियमित रूप से करना चाहिए।
विसंगति यहां समाप्त नहीं होती । उत्तर कांड में और भी उदाहरण हैं ।उत्तर कांड में प्रथम सर्ग में यह  वर्णन मिलता है कि उत्तर दिशा के नित्य निवासी वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, विश्वामित्र ,गौतम ,जमदग्नि और भारद्वाज , रामचन्द्र जी का अभिनन्दन करने के लिए राम  राज्याभिषेक के बाद अयोध्या आये। इसमें विसंगति यह है कि इन ऋषियों में से महर्षि वसिष्ठ राम राज्याभिषेक के समय  न केवल उपस्थित थे अपितु उन्होंने स्वयं अभिषेक कराया था।यह तथ्य सर्व विदित है कि ऋषि वसिष्ठ श्री राम के समकालीन थे।
तुलसीदास ने शंबूक वध प्रसंग का वर्णन भी नहीं किया है । जब श्री राम शबरी के जूठे बेर खा सकते थे तब उन्होंने शंबूक का वध क्यों किया होगा?
गोस्वामी तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के ऐसे कई कार्यों का वर्णन नहीं किया है जिनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में किया गया है। वाल्मीकि रामायण का पाठ आज भी अनेक घरों में होता है। लेकिन की ऊपर दर्शाये गये कारणों से ये प्रसंग संदिग्ध हैं। सीता वनवास का प्रसंग तो स्पष्ट रूप से संदेहजनक है?
क्या यह प्रसंग बाद में वाल्मीकि रामायण में जोड़ा गया है ? भारतीय इतिहास में ऐसी अनेक गुत्थियां हैं जिनका तथ्यान्वेषण किया जाना है!      
(लेखक-हर्ष वर्धन पाठक)
 

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