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नेपाली संसद मे हिंदी का विरोध और नेपाली जनमानस का रोष  

नेपाली संसद मे हिंदी का विरोध और नेपाली जनमानस का रोष  

नेपाली संसद मे हिंदी भाषा को प्रतिबंधित करने की चर्चा बल पकड़ रही है। नेपाल मे भारत, भारतीयता व हिंदी का विरोध कम्यूनिज़्म की देन है। कम्यूनिज़्म क्या है? तो इस प्रश्न के उत्तर मे मैं गांधीवाद पर किसी विचारक की टिप्पणी का रूपांतरण रखता हूं – कम्यूनिज़्म वह होता है जिसमें कम्युनिस्ट नेता एक बात कहे, कम्युनिस्ट सरकार दूसरी बात सुने, कम्युनिस्ट देश की जनता तीसरी ही बात समझें और देश इन तीनों बातों को न सुनते हुये चौथी बात पर चलने लगे!! नेपाल की कम्यूनिस्ट सरकार के  प्रधानमंत्री खड़गप्रसाद ओली देश की संसद से हिंदी को हटाने के विषय मे गंभीरता से विचार भी कर रहें हैं और संसद मे सुगबुगाहट भी छोड़ रहे हैं। हिंदी नेपाल की केवल भाषा ही नहीं वरन उसकी परंपरा रही है, परम्पराओं और कम्यूनिज़्म का कोई मेल नहीं होता यह सभी जानते हैं। कम्यूनिज़्म का अर्थ ही यह होता है कि जिस भूभाग विशेष मे कम्यूनिज़्म का शासन है वहाँ से उसकी पुरातन परम्पराओं को उखाड़ फेंकना और कम्युनिस्ट विचार केंद्रित तानाशाही को स्थापित करना। नेपाल मे चाहे हिंदी को बाहर करने की प्रक्रिया हो या भारत विरोध की या सीमा संबंधित नए नक्शे प्रकाशित करने के विवाद की, ये सारी समस्याएं कम्यूनिज़्म प्रदत्त ही हैं। काठमांडू मे नईदिल्ली के विरुद्ध जो षड्यंत्र चल रहे हैं उनके मूल मे चीन ही है। यह नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक से कुछ दिन पहले, चीनी राजदूत होउ यांकी ने अपने वरिष्ठ नेताओं की मंशानुसार बीजिंग की यह  चिंता स्पष्ट कर दी कि नेपाल के सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर चल रही कलह चीन के हित में नहीं है, जिसने नेपाल में भारी निवेश किया है। इस संदेश मे  काठमांडू को नई दिल्ली के लिए अधिक से अधिक मुश्किलें पैदा करने हेतु अंदरखाने के स्पष्ट निर्देश थे। चीनी राजदूत होऊ यांकी की नेपाल मे यह स्थिति है कि वे नेपाल के प्रशासनिक अधिकारियों और यहां तक की सेना के अधिकारियों से भी सीधी बात करती हैं व उन्हें अपने कार्यालय मे तलब करके सीधे निर्देश भी देती हैं।
          नेपाली संसद मे हिंदी को प्रतिबंधित करने की पहल एक बड़ी दुर्भिसंधि का ही परिणाम है जो नेपाल व चीन के मध्य हो रही है। नेपाली प्रम केपी ओली इसे राष्ट्रवाद का नाम दे रहें हैं किंतु यह पूरी की पूरी कवायद सत्तारुढ़ नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी में मचे अंदरूनी घमासान और देश में सरकार के खिलाफ जारी गुस्से से ध्यान भटकाने का एक प्रयास मात्र है। ओली अपने विरुद्ध देश मे उपजे असंतोष व विरोध के वातावरण से ध्यान भटकाने हेतु  खड़गप्रसाद ओली अब उग्र राष्ट्रवाद की खड़ग का प्रयोग कर रहे हैं। जनता समाजवादी पार्टी की सांसद और मधेस नेता सरिता गिरी ने नेपाल सरकार के इस फैसले को लेकर सदन के अंदर प्रखर व मुखर विरोध किया है। उन्होंने कहा कि ऐसा करके सरकार तराई और मधेशी क्षेत्र में कड़े विरोध को आमंत्रित कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि सदन को इतिहास से सीखना चाहिए। उन्होंने ओली सरकार पर आरोप लगाया कि चीन से आए निर्देशों के आधार पर ऐसा किया जा रहा है।
      नेपाल मे हिंदी, हिंदुत्व व हिंदूवाद का अपना महत्व, इतिहास व सुदृढ़ पृष्ठभूमि रही है। ऐसा नहीं है कि एक केवल एक सरकारी आदेश से संसद मे या शासकीय कारी मे हिंदी प्रयोग के प्रतिबंध से हिंदी, हिंदू, हिंदुवाद का वातावरण वहां समाप्त हो जाएगा। समाप्त होना तो छोड़िए इससे वहां हिंदी, हिंदु या यूं कहें कि भारतीयता का वातावरण तनिक भी प्रभावित नहीं होने वाला है क्योंकि नेपाल की संस्कृति की जड़ो मे हिंदी है। नेपाली सरकार के लिए हिंदी भाषा को बैन करना आसान नहीं है। नेपाल मे नेपाली के बाद सबसे अधिक  मधेसी, मैथिली, भोजपुरी और हिंदी बोली जाती है। नेपाल के तराई क्षेत्र में रहने वाली ज्यादातर आबादी भारतीय भाषाओं का ही प्रयोग करती है। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल में हिंदी को बैन करने के लिए कानून लाया जाता है तो तराई क्षेत्र में इसका सख्त विरोध देखने को मिल सकता है।
       नेपाल मे भारत विरोध के नाम पर नेपाली राष्ट्रवाद का बेसुरा राग आलापा अवश्य जा रहा है किंतु नेपाल की जनता इसे सरलता से पचा नहीं पा रही है। राष्ट्रवाद का यह उभार ओली द्वारा अपनी ही पार्टी के नेता पुष्पकमल प्रचंड के भय से उपजाया जा रहा है। सच तो यह है कि ओली की पार्टी विभाजन के कगार पर है और इसे लेकर जितनी चिंता नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली कर रहें हैं उससे अधिक इसकी चिंता चीन को हो रही है व वह नेपाल के सत्ताधारी दल के विभाजन को रोकने हेतु तमाम प्रकार के प्रयास करवा रहा है। पुष्पकमल प्रचंड बड़ी प्रचंडता व प्रखरता से प्रतिदिन केपी ओली से त्यागपत्र मांग रहे हैं और चीन इस बात से घबरा रहा है। नेपाली संसद मे हिंदी को प्रतिबंधित करने की बात हो या नया विवादित नक्शा पारित कराने की बात, ये सब कुछ देश भर मे व ओली की पार्टी के अंदर हो रहे ओली के विरोध मे बन रहे वातावरण को रोकने का एक शस्त्र मात्र है।  
        नेपाली संसद मे नेपाल के नए नक्शे का व हिंदी विरोधी बिल का भयंकर विरोध हो रहा है। लेकिन, हिंदी भाषा के मुद्दे पर जनता समाजवादी पार्टी की सांसद और मधेशी नेता सरिता गिरी ने सदन के अंदर जोरदार विरोध जताया। उन्होंने कहा कि सरकार तराई और मधेशी क्षेत्र में कड़े विरोध को न्यौता दे रही है। उन्होंने ओली से पूछा कि क्या इसके लिए उन्हें चीन से निर्देश दिए गए हैं।
     नेपाल की मूल संस्कृति मूलतः भारतीय या यूं कहे कि सनातनी ही है। नेपाल नाम का उदय भी संस्कृत भाषा से ही हुआ है। नेपाल “ने” तथा ‘पाल” शब्द से मिलकर बना है। ने का अर्थ होता है ऋषि व पाल का अर्थ होता है गुफा।  माना जाता है कि एक समय नेपाल की राजधानी काठमाण्डू 'ने' नामक एक ऋषि का तपस्या स्थल था। 'ने' मुनि के नाम पर ही इस भूखंड का नाम नेपाल पड़ा, ऐसा कहा जाता है ।  हिन्दी व हिन्दी साहित्य का नेपाल मे व्यापक प्रभाव रहा है। अनेकों हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार हुये हैं जिनने हिंदी की कई कई प्रख्यात रचनाएं, पुस्तकें व ग्रंथ रचे हैं। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, राजगुरु हेमराज शर्मा इनमें प्रमुख नाम हैं। नाथ संप्रदाय के  योगियों से लेकर जोसमनी संतों तक एवं  मल्लकालीन राजाओं से लेकर शाहवंशीय नरेश एवं राजकुल के अनेक सम्मानित व्यक्तियों सदस्यों ने नेपाल मे भारत, हिंदी, हिंदू व भारतीयता को लेकर सम्मान का वातावरण बनाए रखा है।  नेपाल के विकास मार्ग मे भी हिंदी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हिंदी को यहां आजीविका की भाषा language of livelihood कहा जाता है।  इस प्रकार विकास व रोजगार ने हिंदी के साथ नेपाल के संबंध को और गहरा बनाया है। इसके पीछे संस्कृति और धर्म आदि की धुरी कार्यरत है। नेपाल की धरा से प्राप्त अनेकों पुरालेख, पुरातात्विक शिलालेख, अवशेष नेपाल ए कण कण मे हिंदी की उपस्थिती के साक्षातसाक्षी हैं। पश्चिम नेपाल की दांग घाटी में प्राप्त आज से अलगभग 650 वर्ष पूर्व के शिलालेख में दांग के तत्कालीन राजा रत्नसेन, की एक 'दंगीशरण कथा' नामक रचना भी हिंदी मे मिलती है। यह कृति नेपाल में हिन्दी के व्यापक प्रयोग और गहरी जड़ को पुष्ट करती है। यह रचना साहित्यिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही हिन्दी के भाषाई विकास प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। नेपाल के पाल्पा के सेन वंशीय नरेशों तथा पूरब में मोरंग और अन्य कई राज्यों के तत्कालीन नरेशों ने तो हिन्दी को अपनी राजभाषा बनाया था। कुष्णशाह, मुकंदसेन आदि नरेशों के सभी पत्र और हुक्मनामें हिन्दी में ही मिलते हैं।  नेपाल के मल्ल राजाओं का हिंदी प्रेम प्रसिद्ध रहा है व उन्होने हिन्दी में रचनाएं लिखी हैं। इस प्रकार हिन्दी नेपाल मे प्राचीनकाल से ही बहुसंख्यक  नेपालयों की प्रथम और द्वितीय भाषा के रूप में स्थापित रही है। नेपाल में हिन्दी जिनकी वह प्रथम या द्वितीय भाषा नहीं है, उन सबों के लिए भी उतनी ही उपयोगी है। हिन्दी का अच्छा ज्ञान नेपाली के अच्छे ज्ञान में स्वाभाविक रूप से सहयोगी होता है। नेपाल मे संस्कृति, कला, शिक्षा, वैभव और राजनीति के दृष्टिकोण से लिच्छवि काल 'स्वर्णयुग' रहा है और लिच्छवि वंश हिंदी का बहुत बड़ा पक्षधर वंश रहा है।
       वर्तमान मे नेपाल मे हिंदी को लेकर जिस प्रकार का रवैया शासन या यूं कहें कि चीनी शह पर चल रहे प्रधानमंत्री ओली द्वारा अपनाया जा रहा है उसको लेकर नेपाल की सर्वसाधारण जनता मे व्यापक रोष व असंतोष है जिसका परिणाम ओली की सत्ताधारी पार्टी को आज नहीं तो कल भुगतना पद सकता है। 
लेखक- प्रवीण गुगनानी
 

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