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तात्कालिक प्रतिक्रिया--- महत्वाकांक्षा और सम्मान न मिलना क्या मानसिक रोग तो नहीं हैं ?  (वर्तमान में राजनैतिक सन्दर्भ में)

तात्कालिक प्रतिक्रिया--- महत्वाकांक्षा और सम्मान न मिलना क्या मानसिक रोग तो नहीं हैं ?  (वर्तमान में राजनैतिक सन्दर्भ में)

महत्वाकांक्षा यानी ईगो/डिजायर  और सम्मान न मिलना यानी इंसल्ट इस समय राजनीति में बहुत अधिक प्रचलन में हैं ,ऐसा कौन से व्यक्ति होगा जिसकी सभी  महत्वाकांक्षा पूरी हुई होगी और ऐसा कौन सा व्यक्ति न होगा जिसकी कभी इंसल्ट न हुई हो। व्यक्ति जन्म लेता हैं उसके बाद उसे दूसरों के पराधीन रहना पड़ता हैं ,उसे अपना पालना ही अपना पूरा संसार लगता हैं। उसके बाद यदि वह घर में बड़ा हुआ और उसके छोटे भाई बहिनों ने उसकी बात नहीं मानी तो उसकी इंसल्ट हुई ,स्कूल, कॉलेज में गया तो अनेकों बार इंसल्ट हुई होती हैं। उसके बाद शादी होती हैं तब प्रायः पत्नी या पति उसकी बात नहीं मानते तब इंसल्ट होती। बच्चों ने उनकी बात न मानी तो इंसल्ट हुई। कक्षा में या पार्टी में या मीटिंग में पीछे बैठे तो इंसल्ट हुई। पत्नी ने एक गिलास पानी नहीं दिया तो इंसल्ट हुई। यह इंसल्ट क्या वास्तव में एक मनोरोग हैं या अहम हैं ?
संसार में जितनी भी भौतिक सम्पदा हैं वह हर व्यक्ति चाहता हैं ,और सामग्री सीमित हैं और किसी को कभी भी पूर्णता नहीं प्राप्त हुई। सपना देखना जरुरी हैं और उससे हमारी महत्वाकांक्षा बढ़ती हैं। एक व्यक्ति  जब जन्म के बाद स्वालम्वी बनता हैं तो वह अपने उनको को भूल जाता हैं जिनके सहारे /सहयोग से बढ़ा पला और इस योग्य हुआ। वैसे हर व्यक्ति आगे बढ़ने और विकास करने की पात्रता रखता हैं। क्या वह बड़े ,सम्पन्न होने पर अपने दादा- दादी ,नाना- नानी ,माता पिता ,बड़े भाई -बहिनों और सहयोगियों के उपकार को भूल जाता हैं या भूल जाना चाहिए। क्या समय के अंतराल के बाद वह पिता का स्थान सबल होने पर ले सकता हैं ?क्या यह उचित हैं की यदि पिता सक्षम नहीं  हैं तो क्या अपनी बल्दियत बदल लेना चाहिए ?क्या जिसके सहारे बड़े हुए  उससे नाता तोडना चाहिए ?
वैसे उक्त बातें सामाजिक,पारिवारिक सन्दर्भ में किंचित लागू होती हैं पर राजनीती में ये सब बातें सामान्य मानी जाती हैं।
जैसे थूक कर चाटना साहित्य में वीभस्त रस कहलाता हैं और राजनीती में उसे शृंगार कहते हैं। ऐसे व्यक्ति जिनको पहले कोई पहचानता नहीं था उनको पहचान दिलाई ,सब सत्ता सुख दिए ,बीज से पौधा बनाया उसके बाद स्वयं वृक्ष बने और फिर बरगद के झाड़ होकर किसी को न पनपने देना ,न बढ़ने देना। यदि पुत्र योग्य होते हुए भी वह अपने पिता या परिवार के प्रति  समर्पित न हो तो उसे कृतघ्यं कहते हैं जो सबसे बड़ा पाप माना जाता हैं। हमेशा मनुष्य को अपने उपकारी के प्रति हमेशा विनीत भाव रखना चाहिए। हमें अपने माँ ,बाप, गुरु ,सहारे देने वालों ,सहयोगियों  के प्रति सम्मान के साथ ऋणी होना चाहिए। जो इसका पालन नहीं करते उनकी निष्ठाएं हमेशा संदिग्ध रहती हैं। एक बाद और हैं जिनको पाली बदलने की आदत होती हैं संभवतः वे कहीं वंशानुगत से प्रभावित तो नहीं हैं।
राजनीती में बन्दर कूदनी हमेशा से होती रही हैं और होगी ,इसको कोई नहीं रोक सकता कारण जहाँ मनुष्य को यह अहसास होने लगता हैं की हमारा विकास नहीं पायेगा या सम्मान नहीं मिल पायेगा तब वह उज्जवल भविष्य की और दृष्टिपात करना शुरू करता हैं और वह फिर अपनी जड़ को उखाड़ कर नए बीज के रूप में अन्य खेत या भूमि में बोया जाता हैं। जो बरगद रहता हैं वह अन्य भूमि में बीज बनना स्वीकार करता हैं। उसके बाद वह वृक्ष बने या न बन पाए। जिस प्रकार संतानोतपत्ति के लिए शादी करना अनिवार्य हैं पर शादी के बाद संतान  हो या न हो कोई जरुरी नहीं।
इस विचार धारा के बौद्धिक लोग जो असामाजिक यानी समाज से अलग होने से इस बात को नहीं सोचते जबकि यह भी या ही सोचना चाहिए ---
समः शत्रौ च मित्रे  च समो मानापमानयोः।
लाभालाभे समो नित्यं लोष्ट -कांचनयोस्तथा।।
जिसे ज्ञान या समझदारी हो जाती हैं ,वह शत्रु और मित्र पर सम -भावी हो जाता हैं ,उसके लिए मान और अपमान समान
बन जाते हैं ,वह सांसारिक वस्तुओं के लाभ या अलाभ में समान रहने लगता हैं और लोष्ट -कांचन को सम -दृष्टि से देखने लगता हैं। उनको इस बात का चिंतन करना चाहिए कि मेरे ही पाप कर्म के उदय से दूसरे लोग मेरे साथ शत्रुता का व्यवहार करते हैं और मेरे पुण्य कर्म के उदय से  दूसरे  लोग मेरे साथ मित्रता का व्यवहार करते हैं।
वर्तमान में जिस राजनैतिक परिदृश्य में बात कहना चाह रहा हूँ चाहे मध्य प्रदेश या राजस्थान या अन्य कही भी पूर्व में हुआ था ,वर्तमान में हो रहा हैं और भविष्य जो होगा ,वह निश्चित हैं पर मानव सुख प्राप्त करने के लिए कोई भी अधम कार्य करने से नहीं चूकता और फिर कहता हैं कि मेरी पदोन्नति नहीं हो रही हैं या सम्मान नहीं मिल रहा हैं। जो काम बातचीत से हल हो सकता था वहां अहम यानी ईगो टकराया और वृक्ष से बीज बन गए।
क्या यह अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ी जा रही हैं या स्वारथ लिप्सा के लिए ,जब इतने सम्पन्न लोग जो दूसरों के लिए एक उदाहरण हो सकते थे उनसे को क्या सीखेगा। इतिहास और उनकी आत्मा या आत्म-बोध धिक्कारेगा। तर्क अनेक हो सकते हैं पर वास्तविकता को कोई झुठला नहीं सकता।
होऊं नहीं कृतघ्न कभी न द्रोह न मेरे उर आवे।
गुण-ग्रहण का भाव रहें नित दृष्टि न दोषों पर जावें।।
दाम बिना निर्धन दुखी ,तृष्णावश धनवान।
कहूं न सुख संसार में ,सब जग देख्यो छान।।
धन -कन कन्चन राजसुख ,सभी सुलभकर जान।
दुर्लभ हैं संसार में ,एक जथारथ  ज्ञान।।
इस धरा पर सब धरा रह जायेगा।
इतिहास कभी माफ़ नहीं करता अविज्ञाकारियों को।
 (लेखक-डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन)

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