
पिछले 6-7 सालों में आम तौर पर देखा जा रहा है कि केन्द्र या सूबों की जनहितकारी योजनायें जमीनी स्तर पर ढंग से लागू नहीं हो सकी हैं। सिर्फ और सिर्फ भाषणबाजी व धार्मिक उन्माद फैलाया जा रहा है। कोरोना काल से दो बरस पहले तक चाहे रेलों के संचालन का मामला हो या शिक्षा की गुणवत्ता को बनाये रखने की बातें हों हमें शायद कहीं पूरे रिजल्ट नहीं दे पाये हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर तो अपने कार्यकाल से पहले ही त्याग पत्र देकर अपने विदेशी विश्वविद्यालय पर वापस पढ़ाने चले गये थे। न सरकार ने उन्हें रोका और न ही उनको खुलकर काम करने दिया गया। जी.एस.टी. से लेकर आयकर कानूनों को भी जमीन पर हम पूरी तौर से लागू ही नहीं कर पाये। नोटबंदी की सफलता या विफलता पर कोई स्पष्ट वाद-विवाद हमारी सरकारें नहीं करा पायीं। विपक्षी नेता की गम्भीरता भी कम ही दिखाई दीं। देश में विकास रुक सा गया लग रहा है। लगातार बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। नौजवानों में हताशा स्पष्ट तौर पर देखी जा रही है।
लगातार देखा जा रहा है कि अधिकांश योजनायें धीरे-धीरे ऊपर से नीचे की तरफ आ रही हैं और जमीनी स्तर पर उन्हें लागू करने वाला पंचायत स्तर, ब्लॉक स्तर के जनप्रतिनिधि या उपमंत्री देश प्रेम से परे सिर्फ अपना घर भरने में लगा है। योजनाओं के लागू करने की रुकावटों पर कभी चर्चा नहीं की जा रही है। कोई योजना 5 वर्ष में लागू होनी है उसका आधा काम भी 6 साल में पूरा होता दिखाई नहीं देता। हर काम प्रधानमंत्री कार्यालय देखता आ रहा है।
रेलवे जो सबसे बड़ी परियोजना पर काम कर रहा है वहां की हालातें सबसे खराब हैं। यहां 42 तरह के कन्सेशन दिये जा रहे थे जिसमें 32 तक के फालतू माने जाते रहे हैं। इसी तरह किसी भी सूबे में केरल को छोड़ सभी परियोजनायें समय पर लागू न होकर उनके बजट से दो गुना तक पैसा खर्च कर बर्बाद हो रहा है। कोई ओवरब्रिज तीन साल में 20 करोड़ में बनता था वो 60 करोड़ में 4 साल में बन रहा है। कोई अफसर या सियासतदां इस पर गौर करता नहीं दिखाई देता। सवाल उठाने वाले मीडिया संस्थानों को सरकार ने प्रभावहीन बनाकर अपनी गोदों में बैठा लिया। गरीबों पर पुलिस अत्याचार बढ़ा दिये गये हैं। अब प्रेस में भी उनकी आवाजें दबा दी जा रही हैं। हमारे सियासतदां जमीनी हकीकत को समझने को तैयार ही नहीं दिखते। कोरोना काल में तो भुखमरी व बेरोजगारी इतनी बढ़ गई है कि भ्रष्टाचारियों व काला बाजारियों की चांदी हो गई है। उन्होंने मुनाफा खोरी और बढ़ा दी हैं। शासन, प्रशासन मूक दर्शक बना बैठा है। आज केन्द्र में देखें या सूबों में राजनीति सिर्फ सत्ता भोग में सिमट कर रह गई है। इतिहासों में ये बात दर्ज है कि जब जब आम जनता में सियासतदानों से विश्वास उठा है तब तब कुर्सी पर तानाशाहों का कब्जा आसान होता जा रहा है। गोआ, कर्नाटक, मध्य प्रदेश आदि में ये स्पष्ट देखा जाता रहा है। देश की पहली जरूरत है रचनात्मक काम सहयोग, आपसी भाईचारा। अभी भी सियासतदां सिर्फ सत्ता के लिये जातिवाद, शाहीनबाग, हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे की दम पर सत्ता पाना चाह रहे हैं। कहीं-कहीं वो सफल भी हो रहे हैं। म.प्र. में नौकरशाही सियासतदां की कमजोरी का लगातार फायदा उठाते देखे जा रहे हैं। लगभग 80 फीसद आय.ए.एस. व आय.पी.एस. अफसरान आम लोगों को भेड़-बकरियों व जानवरों जैसा बर्ताव करते देखे जा रहे हैं। प्रदेश में गोडसे को महान बताने वाले लोग जो आतंकवादी मामलों में गम्भीर केस न्यायालयों में मुल्जिम के तौर पर नामजद हैं उन्हें सांसद बनवाया जा रहा है। नौजवान नौकरशाह इस सब मामलों को देखकर खुद सामंतों जैसा बर्ताव करते देखे जा रहे हैं। आमतौर पर जैसे विधायकगण मंडी में खरीदे-बेचे जा रहे हैं। वैसे ही कलेक्टरी व बड़े नगर निगमों के आयुक्तों व पुलिस अधीक्षकों के पदों को भी खरीदा-बेचा जा रहा है। फिर भी सियासतदां की तुलना में नौकरशाह कुछ संवेदनशील देखे जा रहे हैं। भारत में पिछले दो दशकों से नुमाइन्दे गैर जिम्मेवार व गैर संवेदनशीलता की रेखायें पार करते देखे जा रहे हैं। हमने 1971 से प्रकाशचन्द्र सेठी, अर्जुन सिंह, कैलाश जोशी जैसे संवेदनशील नुमाइन्दे मध्य प्रदेश में देखे 1990 तक व जी.एन. बुच, एम.एन.बुच, सुधीरनाथ, अजयनाथ, शिवराज सिंह जैसे अफसरान भी देखे जो हर सीढ़ी दर सीढ़ी आम लोगों के खास रहा करते थे। ना थानों में तहसीलों में लूट होती थीं न मिलावटखोरी, मुनाफाखोरी का दौर था पर आज हर तरफ लूट का दौर है यहां तक लाखों करोड़ों के स्वामी राजा महाराजा तक जमीनों की चोरी करते देखे सुने जा रहे हैं। हायकोर्ट तक उन्हें फटकार कर जुर्माने कर रहे हैं। नौकरशाह ट्रांसफर होने व सेवा से रिटायर होने पर भी बड़े-बड़े बंगले घेरे बैठे हैं। यही आचरण जनप्रतिनिधियों का भी सरेआम देखा जा रहा है।
(लेखक-नईम कुरेशी )