
देश के लिए क्या यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी को उनके अपने ही पिछले छः सालों में ठीक से पहचान नहीं पाए? आज जबकि मोदी ने अपनी लोकप्रियता के आधार पर देश में प्रतिपक्ष को लगभग शून्य कर दिया, वहीं अब मोदी जी के अपने दल तथा उनके निकटवर्ती ही प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गए है, इन्हीं की मेहरबानी से अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग या एनडीए) का अस्तित्व खत्म हो चुका है और इसी के फलस्वरूप आज देश की सरकार गठबंधन वाली नहीं बल्कि शुद्ध रूप से भारतीय जनता पार्टी की सरकार रह गई है, पिछले बाईस वर्षों से इस गठबंधन से जुड़े अकाली दल ने जहां केन्द्र में अपनी महिला मंत्री श्रीमती बादल से इस्तीफा दिलवाकर अपने सम्बंध विच्छेद कर लिए, वहीं वरिष्ठ मंत्री रामविलास पासवान के निधन के बाद अब भाजपा को लोक जनशक्ति पार्टी से भी अलगाव हो गया है और अब इसीलिए भाजपा के एक जिम्मेदार केन्द्रीय मंत्री ने इस पार्टी को बिहार चुनाव के संदर्भ में ‘‘वोटकटवा’’ पार्टी बता दिया है, जिस पर स्व. पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने काफी दुःख व्यक्त किया है।
मोदी सरकार को बदनाम करने की यह मुहीम भाजपा के अलग-थलग पड़ने के बावजूद खत्म नहीं हुई है, अब भाजपा चूंकि यह मान चुकी है कि उसका अस्तांचल निकट है, इसलिए वह बिहार चुनाव में जनता दल (यूनाइटेड) के नेता मौजूदा मुख्यमंत्री नितिश कुमार को जी जान से सहयोग कर रही है और गृहमंत्री अमित शाह ने तो यहां तक भी कह दिया कि भाजपा को बहुमत मिला तो भी मुख्यमंत्री तो नितिश कुमार ही होंगे।
अर्थात् यदि यह कहा जाए कि भाजपा के घर में उसके ही चिराग आग लगाने को तत्पर है तो कतई गलत नहीं होगा। आज एक ओर जहां गैर-भाजपा शासित राज्यों में तैनात राज्यपाल अपनी संवैधानिक मर्यादा को ताक में रखकर भाजपा के प्रचारक बन बैठे है, जिसके ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ है, जिन्होंने अपनी संवैधानिक मर्यादाओं को सार्वजनिक मजाक उड़वा कर दोनों राज्यों में भाजपा के प्रचारक की भूमिका को अंगीकार कर लिया है, वहीं अन्य गैर भाजपा शासित राज्यों में भी राज्यपालों की कमोवेश यही स्थिति है।
.....और जहां तक भाजपा शासित राज्यों का सवाल है, वहां भाजपा के ही नेता अपने आपकों प्रधानमंत्री जी से भी ऊपर मानकर उनकी मनमर्जी के गैर कानूनी काम कर रहे है, जिसका ताजा उदाहरण उत्तरप्रदेश है जहां बलिया के भाजपा विधायक के एक दबंग कार्यकर्ता ने खुलेआम गोली चलाकर एक शख्स की जान ले ली, अब उक्त भाजपा विधायक की इस काण्ड को जातीय रंग देकर उक्त आरोपी के साथ खड़े हो गए है। हाथरस जैसे बलात्कार काण्ड से सुर्खी में आए उत्तरप्रदेश की योगी सरकार को इस बलिया काण्ड ने और अधिक चमक प्रदान कर दी है। अर्थात् ऐसी घटनाओं से तो यही स्पष्ट होता है कि उत्तरप्रदेश की सत्ता वहां के भाजपाईयों को पच नही रही है।
ये तो चंद उदाहरण थे, जो केन्द्र की मोदी सरकार को बदनाम करने की नीयत को स्पष्ट करते है, इसके अलावा असम में मदरसें बंद करने की घोषणा, प्रस्तावित समान नागरिक संहिता, राम जन्मभूमि विवाद निपटने के बाद अब कृष्ण जन्मभूमि विवाद, बाबरी मस्जिद काण्ड के फैसले के बाद उस काण्ड को पुनः जीवित करने के प्रयास जम्मू-कश्मीर में खत्म की गई धारा-370 को लेकर वहां स्थानीय गैर भाजपाई नेताओं की एकजुटता से वहां के प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में भाजपा का भविष्य। ये सब ऐसे मुद्दें है, जो मोदी जी की केन्द्र सरकार को बदनाम करने के प्रयास है, ये सही है कि पश्चिम बंगाल में अगले साल विधानसभा चुनाव होना है और महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार भाजपा की आँखों में खटक रही है, किंतु इसके लिए स्वयं राज्यपाल महोदय अपने पद की संवैधानिक गरिमा त्यागकर भाजपा के प्रचारक का काम करें, यह तो तर्क सम्मत नहीं है, भाजपा के पास अपनी लक्ष्य प्राप्ति के और भी तो अन्य विकल्प हो सकते है?
किंतु किया क्या जाए? अब तो पूरा प्रजातंत्र कुर्सी की परिक्रमा तक ही सीमित हो गया है न और यहां सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि ऐसे हर मामले पर हमारे प्रजातंत्र के सबसे बड़े संरक्षक प्रधानमंत्री जी ने मौन साध लिया है, मोदी जी स्वयं यदि ऐसे गैर प्रजातांत्रिक कृत्यों पर लगाम लगाने का प्रयास करते तो उनकी छवि और अधिक निखरती, किंतु वे तो हमेशा विवादों से स्वयं अलग रहकर नए विवादों के जन्मदाता रहे है, यद्यपि मोदी जी के कर्तव्यनिष्ठा, राष्ट्रभक्ति और नैतिकता कभी विवादास्पद नहीं रही किंतु ऐसे देश विरोधी कृत्यों की अनदेखी करना भी तो उनके प्रति कई सवाल खड़े करती है? और अब तो धीरे-धीरे चुनौतियाँ बढ़ने ही वाली है, जो किसी ‘टनल’ (सुरंग) से निकलकर जाने वाली नहीं है, इसलिए अब मोदी जी को विवादास्पद मामलों में भी मुखर होना ही पड़ेगा, वर्ना देश की जनता 2024 के बारे में अभी से विचार मंथन शुरू कर देगी और ऐसी विवादास्पद घटनाओं से प्रतिपक्ष को पुनर्जीवन मिल गया तो क्या होगा? इसलिए मोदी जी के लिए सच पूछों तो यही फैसले की घड़ी है कि उन्हें ‘मौन-साधक’ ही बने रहना है या सख्त प्रशासन का रास्ता अख्तियार करना है।
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता )