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आत्मरामायण के काण्डों में प्रमुख पात्रों के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग  (श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग) 

आत्मरामायण के काण्डों में प्रमुख पात्रों के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग  (श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग) 

देश की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में हमें श्रीरामचरित्र के अनेक स्वरुपों का वर्णन प्राप्त होता है, जो श्रद्धालुओं के मन को झंकृत तो करता ही है, यह सोचने के लिए विवश भी करता है श्रीराम सम्पूर्ण भारत के जन मानस के रग-रग में समाए हुए हैं। श्री व्रज रत्न भट्टाचार्य द्वारा संग्रहीत 'आत्म रामायण भाषाÓ एक विशद् ग्रन्थ न होने पर भी एक लघु स्वरुप की सारगर्भित पुस्तक है। इसे उन्होंने 'रामायण का रहस्योद्धाटनÓ अभिधान के माध्यम से भी संग्रहीत किया है। इस रामायण के प्रकाशक एवं मुद्रक खेमराज श्री कृष्णदास, अध्यक्ष श्री वेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई है।
लेखक ने इस भक्तिरुपी ज्ञानगंगा में अवगाहन हेतु रामायण के पात्रों को प्रतीक स्वरुप भक्तों के समक्ष प्रस्तुत करने का एक सशक्त एवं श्लाघनीय प्रयास किया है जो अनूठा है। इस प्रयास में श्रीरामचरितमानस, आध्यात्मरामायण तथा श्रीमद्भगवद् गीता जैसे महान् ग्रन्थों से भी बहुत कुछ प्रसंग लिए हैं। इसमें भक्ति, कर्म, ज्ञान तथा उपासना का निरुपण भी स्थान-स्थान पर प्रस्तुत किया है। इसमें रामायण के लगभग सभी प्रमुख पात्रों को प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ- श्रीराम-ज्ञान, लक्ष्मण-विवेक, भरत-वैराग्य तथा शत्रुघ्न विचार के प्रतीक हैं। कौसल्या-भक्ति, कैकई-प्रवृत्ति, सुमित्रा-निवृत्ति, ताड़का-शंका, अहल्या-क्षमा, सीता-शान्ति, उर्मिला-नम्रता, माण्डवी-विरति, श्रुतिकीर्ति-समता, शबरी-प्रीति, मन्दोदरी-सुमति, सुलोचना-रति, शूर्पणखा-तृष्णा, सुग्रीव-सन्तोष, बाली-लोभ, अंगद-अक्रोध, राक्षस-बैर विरोध, हनुमान्जी-सत्संग, मुद्रिका-श्रीमुखवाक्य, कुम्भकर्ण-क्रोध, जटायु-धर्म, राजसिंहासन-विज्ञान, अमूल्य रत्न-अभेद भक्ति, मेघनाद-राग, रावण-अज्ञान, विभीषण-विहित कर्म, सेतुबन्ध-रामलीला। इस प्रकार अनेक प्रतीक दर्शाये गए हैं। उदाहरणार्थ- विश्वामित्र-उपराम, शरभंग-तेज, अगस्त्य-अद्वैत, निषाद-जिज्ञासा, वाल्मीकि-दम आदि।
बाल काण्ड
दशरथ राजा की तीन पत्नियाँ सबसे बड़ी भक्तिरुपा कौसल्या, मझली रानी निवृत्ति रुपा सुमित्रा और सबसे छोटी प्रवृत्ति रुपा कैकेई। श्री दशरथ रूपी जीवात्मा से भक्ति रुपा कौसल्या का संसर्ग हुआ तो आकाशवाणी होने पर जीवात्मा रुपी दशरथजी ने यह वर माँगा कि यदि आपका अनुग्रह हो जाए तो मुझे आपके सगुण रुप दर्शन का लाभ प्रतिदिन प्राप्त होता रहे-
'माँगु माँगु वर भई नभ बानी, परम गंभीर कृपामृत सानी।Ó
(आत्म रामायण)
श्रीराम (ज्ञान), लक्ष्मण (विवेक), शत्रुघ्न (विचार) और भरत (वैराग्य) के प्रतीक चारों पुत्र रत्नों को प्राप्त कर दशरथ (जीवात्मा) को अपार हर्ष हुआ। चारों बालक बड़े हुए तो वेदरूप वसिष्ठजी का आगमन हुआ वे इन बालकों को अपने साथ ले गए। वहाँ श्रीराम, लक्ष्मण (ज्ञान, विवेक) ने वहाँ ताड़का (शंका) सहित कई राक्षसों का वध किया। कुछ वर्षों पश्चात् राजा जनक (विदेह रूप) ने अपनी लाड़ली पुत्री सीता (शान्तिरूपा) के स्वयंवर का समाचार प्राप्त हुआ, जिसमें अहंकार रूपी धनुष को जो वीर भंग करेगा, उसे ही शान्तिरूपा सीता वरण करेगी। इस बात की सूचना दी गई थी-
देश देश के भूपति नाना। आये सुनि जो हम प्रण ठाना।।
देव दनुज धरि मनुज शरीरा। विपुल वीर आये रणधीरा।।
(आत्म रामायण)
प्रेम के प्रतीक स्वरूप परशुराम का आगमन होता है। उनका लक्ष्मण जी के साथ वाक् युद्ध होता है। परशुरामजी श्रीराम के उपदेशात्मक वाक्य सुनकर प्रभु के वास्तविक स्वरूप को पहचान लेते हैं और आनन्दमय वातावरण में विवाहविधि सम्पन्न होती है। नम्रता रूपा उर्मिला का विवेकरूपी लक्ष्मण से, विरतिरूपा मांडवी का वैराग्य रूपीभरत से, समतारूपा श्रुतिकीर्ति का विचाररूपी शत्रुघ्न से विवाह होता है। इस प्रकार चारों पुत्रियों का विवाह चार राजकुमारों के साथ हो जाता है। पंचकोशरूपी अवधपुरी में अपार आनन्दोत्सव होता है।
अयोध्याकाण्ड
प्रवृत्ति रूपा कैकई ने भरत को राज्य तथा श्रीराम को वनगमन ये दो वर श्री दशरथजी (जीवात्मा) से स्त्री हठ के अधीन होकर माँगे। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को जाने के लिए तत्पर हुए। सुकर्म रूप सुमन्त्र अखण्डतारूपी रथ पर तीनों को आरुढ़ कर निर्भय रूप वन को चल पड़े। जिज्ञासा रूप केवट ने आधार रूप कठौते में जल भरकर श्रीराम-लक्ष्मण-सीताजी का पाद प्रक्षालन किया। तीनों जन उपरामरूप भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे और वहाँ रात्रि विश्राम किया। इसके पश्चात् वाल्मीकि (दमरूप) के आश्रम पहुँचे और उनसे पूछा कि कोई ऐसा स्थान बतलाइए, जहाँ हम तीनों निवास कर सकें। वाल्मीकि जी ने कहा कि आप सर्वत्र व्याप्त हैं। मैं आपको कौन सा स्थान बतला सकता हूँ। आपके लिए तो चित्रकूट ही समयोचित सर्वोत्तम स्थान है। यहाँ भरतजी और शत्रुघ्न का आगमन होता है। श्रीरामचन्द्र जी अपनी कृपा रूप चरण पादुका देकर भरत को बिदा करते हैं।
आरण्य काण्ड
महर्षि अत्रि ने आश्रम में श्रीराम-लक्ष्मण-सीताजी की अगवानी की। अत्रि जी की पत्नी अनुसूया जी ने सीता जी को स्त्रियों के धर्म समझाए। उन्होंने कहा-
एकहि धर्म एक व्रत नेमा।
कायँ वचन मन पतिपद प्रेमा।।
श्रीरामचरितमानस दोहा अरण्य ५ क, ख-५
इसके पश्चात् शरभंग ऋषि तथा अद्वैतरूप अगत्स्यमुनि के आश्रम पहुँचे। अगत्स्य मुनि ने शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये जड़ रूप पाँच वट वृक्ष वाले स्थान पंचवटी में निवास करने के लिए कहा। श्रीराम-लक्ष्मण जी तो माया के स्वरूप को समझते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व तथा वशीकरण के आठ सिद्धियों एवं सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों का जो तिनके के समान त्याग देता है वही सच्चे वैराग्य को प्राप्त करता है। शूर्पणखा के नाक, कान भंग लक्ष्मण जी कर देते हैं। कामरूप मारीच स्वर्णमृग बनकर आता है और सीताजी के हठ करने पर स्वर्णमृग लेने जाते हैं। रावण छद्मवेश में होता है और वह सीता जी का हरण कर लेता है। वहाँ श्रीराम और धर्मरूप जटायु का मिलन होता है। धर्मरूप जटायु घायल अवस्था में होते हैं। श्रीराम उन्हें अमर पद प्रदान करते हैं। इसके पश्चात् प्रीतिरूपा शबरी से भेंट होती है। भावाभिभूत होकर फलों को चखकर दोनों भाइयों को शबरी फल खिलाती है। उसे श्रीराम परमपद देकर अपनी यात्रा में आगे प्रस्थान करते हैं।
किष्किन्धा काण्ड
इस काण्ड में सत्संग रूप हनुमान्जी से भेंट होती है। यहाँ संतोषरूप सुग्रीव से मित्रता होती है। लोभ रूप बालि का वध होता है। अक्रोध रूप अंगद को युवराज घोषित किया जाता है। वर्षा ऋतु की समाप्ति पर संतोषरूप सुग्रीव सत्संग रूप हनुमान्जी सहित कई वानर माता सीता के अन्वेषण में निकल पड़ते हैं। अगम रूप समुद्र तट पर संपाती से मिलन होता है। सत्वगुण रूप सम्पाती कहता है कि शान्तिरूपा सीता जी को अज्ञानरूपी रावण हर कर ले गया है और भ्रान्तिरूप लंका में उन्हें रखा गया है। उसने आगे कहा कि कोई अविचल ही वहाँ जा सकता है। उसके ऊपर राक्षसों का भी कोई प्रभाव न पड़ सके वही माँ सीता के दर्शन कर सकता है और लौट सकता है।
सुन्दर काण्ड
सम्पाती के वचन सुनकर श्री हनुमान्जी ने मन ही मन श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया और अगमरूप सागर पार कर लंका पहुँचे। वहाँ उन्हें रामनाम अंकित घर दिखा। वहाँ विहित कर्म विभीषण की भेंट हुई। विभीषण ने उन्हें बतलाया कि सीताजी अशोक वाटिका में हैं। वहां सीताजी को देखकर हनुमान्जी ने उन्हेें मुद्रिका दी जो श्रीराम ने उन्हें दी थी। सीताजी ने उन्हें श्रीराम को देने के लिए चूड़ामणि दी। श्रीराम ने जब हनुमान्जी से सीता जी के बारे में पूछा तो हनुमान्जी ने कहा-
नाम पाहरु दिवस निशि, ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित प्राण जाहि केहि बाट।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा क्र. ३०
श्रीराम ने अज्ञानरूप रावण का वध करने के लिए भ्रान्ति रूप लंका पर समुद्र तट पर पहुँचकर युद्ध की तैयारी कर ली। विहितकर्म विभीषण के समझाने पर भी रावण नहीं माना। विभीषण ने श्रीराम के चरणों में शरण ली।
लंकाकाण्ड
श्रीराम ने समुद्र किनारे पहुँचकर अपने गुरु के रूप में श्रीरामेश्वर की स्थापना की। उनका पूजन किया। आशा रूप समुद्र पर लीला रूप सेतु का निर्माण कर सेना सहित समुद्र के पार पहुँच गए। सुमति रूपा मन्दोदरी ने अपने अज्ञानरूपी पति रावण को श्रीराम से बैर न बढ़ाने की विनती की परन्तु मदमस्त अज्ञानरूपी रावण जरा भी टस से मस नहीं हुआ। अक्रोध रूप अंगद को रावण दरबार में उसे समझाने के लिए भेजा। अंगद ने अपना पैर रावण दरबार में जमाया। इस प्रकार उसने श्रीराम की शक्ति का प्रदर्शन किया। दोनों पक्षों में युद्ध हुआ और अनेक सैनिक मारे गए। लक्ष्मणजी को आसक्ति रूपी शक्ति लगी। धैर्यरूप सुषेण वैद्य ने जड़ी बूटी लाने का कहा। हनुमान्जी द्वारा लाई गई जड़ी बूटियों से लक्ष्मणजी की मूर्च्छा दूर हुई। रास्ते में भरतजी ने कहा कि वैराग्यरूप भरत के बाण का आश्रय लेकर सत्संग रूप हनुमान् सद्शास्त्रों के कथनानुसार विवेक रूप लक्ष्मणजी की मूर्च्छा को दूर कर सकते हो। लक्ष्मणजी के ठीक होने पर क्रोधरूप कुम्भकर्ण का शान्तवाक्यरूप बाणों से अन्त हो गया। इसके पश्चात् रागरूपी मेघनाद विवेक रूप लक्ष्मण से युद्ध करने आया और शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई। उसकी पत्नी सुलोचना भी सती हो गई। इसके पश्चात् अहिरावण श्रीराम-लक्ष्मण को कपट रूप से ले गया। सत्संग रूप हनुमान् ने उसका वध कर दिया। निर्लोभ मकरध्वज को अहिरावण के स्थान पर नियुक्त कर श्रीराम लक्ष्मण को वापस ले आए। रावण के युद्ध मैदान में आगमन पर श्रीराम ने कहा कि पुरुषार्थ से प्राप्त किए जाने वाले धन, जन इत्यादि पदार्थ नाशवान हैं। वेदपाठी, ब्रह्मनिष्ठ गुरु ही ब्रह्म की प्राप्ति कराने में सहायक हो सकता है, क्योंकि
'ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या।Ó
इस प्रकार श्रीराम और रावण के मध्य वाक्य रूपी बाणों का आदान-प्रदान चलता रहा है और अंत में रावण का वध हो गया और शान्तिरुपिणी सीता ज्ञान स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी को प्राप्त हो गई। विभीषण को लंका का राज्य सौंप दिया गया।
उत्तरकाण्ड
भरतजी अवधि पूर्ण होने पर श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा बड़ी बेचैनी से कर रहे हैं-
बीते अवधि रहै जो प्राना।
अधम कवन जग मोहि समाना।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा १ क, ख-४
उसी समय सत्संगरूप हनुमान्जी आये और उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के आगमन की सूचना दी। वेदरूप वसिष्ठजी ने आनन्द रूप लीला का अवलोकन किया। उन्होंने पंचकोश रूप अवध के विज्ञानरूप सिंहासन पर श्रीराम का राज्याभिषेक विधिपूर्वक किया। विभिन्न विद्वानों ने 'तत्त्वमसिÓ, 'सोऽहमस्मिÓ तथा 'अहंब्रह्मास्मिÓ जैसे महावाक्यों का निरुपण किया। भगवदुपासना चाहे जिस भाव से करो किन्तु कर्म के विषय में भगवान कहते हैं-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
श्री भगवदगीता २/४७
प्रथम यज्ञ 'कर्म यज्ञÓ है। द्वितीय यज्ञ 'उपासनाÓ है तथा तृतीय यज्ञ 'ज्ञानकाण्डÓ है। ईश्वर को प्राप्त करने या मोक्ष प्राप्त करने के ये ही तीन सोपान का आश्रय लेना चाहिए। विश्व कल्याण हेतु तथा अणु परमाणु में ब्रह्मसत्ता का अवलोकन करने हेतु रामनाम ही सर्वोत्तम है-
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
श्रीरामचरितमानस बाल. ८-१
(लेखक- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता)

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