
श्मशान में भी बेशर्म भृष्टाचार! सुनने में थोड़ा अजीब लगता है लेकिन हकीकत यही है. इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे जब श्मशान में मृतक की अंत्येष्टि और आत्मा की शांति के लिए धूप और पानी से बचने खातिर बनी नई-नई गैलरी में खड़े होकर ईश्वर से प्रार्थना की जा रही हो, ठीक उसी समय भृष्टाचारियों की करतूत यमदूत बनकर आए और श्मशान में ही मौत की नींद सुला जाए. यह किसी फिल्म की पटकथा नहीं है वरन हकीकत है. ऐसा सिर्फ हमारे देश में भृष्टाचारियों पर सरपरस्ती के चलते ही हो सकता है और हुआ. वैसे देश में न जाने कितनी इससे मिलती जुलती घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन गाजियाबाद के मुरादनगर के उखलारसी गाँव की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया.
लोग आए तो थे एक मृतक का अंतिम संस्कार करने लेकिन भृष्टाचार की बलिबेदी पर चढ़कर एक, दो नहीं पूरे 27 लोगों ने जिस छत के नीचे बारिश से बचने का ठौर बना रखा था वही भारी भरकम छत बिना किसी भूकंप के मौत बन भरभरा कर गिरी. श्मशान में ही मौत का ताण्डव मच गया. हैरानी इस बात को लेकर और भी ज्यादा होती है कि ऐसी घटना उस महानगर में घटी जहाँ गगनचुंबी इमारतों की भरमार हैं. बड़े-बड़े निर्माण कार्यों में दक्षता की कमीं नहीं है. पहली बार शहर में आया हर कोई कंक्रीट के चमकते-दमकते जंगलों की चकाचौंध के बीच बड़ी-बड़ी आलीशान हवेलियों को बस देखता ही रह जाता है. उसी कंक्रीट के शहर में महज 20 फुट ऊंची तथा 70-80 फुट लंबी कंक्रीट की गैलरी बिना किसी आहट, सुगबुगाहट या संकेत के एकदम से भरभरा कर बैठ जाए और चारों तरफ चीख, पुकार, खून ही खून फैल जाए और बेसुध, बेजान लोगों के ढ़ेर लग जाएं. सच में उखलारसी गाँव के श्मशान में ऐसा ही हुआ. जानते है क्यों? क्योंकि यह एक सरकारी काम था जो ठेके पर बना था और ठेकेदार को भी क्वालिटी की परवाह नहीं थी वजह साफ है भरपूर कमीशनबाजी का खेल था. लेकिन श्मशान में भी ऐसा खेल खेला जाएगा यह किसी को नहीं पता था!
वाकई, भृष्टाचार के अनगिनत किस्से, कहानियाँ और हकीकतें सुनने-देखने में तो अक्सर आती हैं. लेकिन श्मशान में ऐसा भृष्टाचार पहली बार दिखा. पूरे देश में हर किसी की रूह काँप गई. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री भी द्रवित और दुखी हो गए. वाकई में मुरादनगर की 3 जनवरी की घटना शायद देश के इतिहास की अब तक पहली अकेली घटना हो जिसने बेईमानी की सारी सीमाओं को पार कर कुछ यूँ शर्मसार कर दिया कि शर्म भी शर्मा जाए. यह तो पता था कि भृष्टाचारियों का न कोई धर्म होता है, न कोई जात और न ही ईमान. लेकिन यह नहीं पता था कि भृष्टाचार के सौदागर जलती चिता के सामने भी बेखौफ होकर इसे अंजाम देंगे. ऐसा नहीं होता तो मुरादनगर की यह घटना कभी नहीं होती. उससे भी बढ़कर यह कि श्मशान में इस ठेके लिए भी राजनीतिक सिफारिशें हुईं, होड़ भी हुई अपनों को फायदा पहुँचाने का खेल भी हुआ और नतीजन मौत के वीभत्स मंजर का वो नंगा नाच हुआ कि एक बार यमराज भी थरथरा जाए. सवाल अनगिनत हैं लेकिन अहम यह कि भृष्टाचार की ये इन्तेहा जिससे अब श्मशान भी अछूते नही कब थमेगी?
भारत में ही सैकड़ों साल पहले आचार्य चाणक्य हुए तो यूनान में दार्शनिक प्लेटो. दोनों प्रकाण्ड विद्वान रहे दोनों ने ही भृष्टाचार की गंध को तभी पहचान लिया था. शायद इसीलिए जहाँ चाणक्य ने अति शुद्ध और सात्विक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा तो प्लेटो ने भी अपने ग्रंथ रिपब्लिक में ऐसे दार्शनिक राजा की कल्पना की जिसका न तो कोई अपना परिवार होता है और न ही खुद की संपत्ति. लेकिन राजनीति में आने वालों का मकसद ही कुछ और होता है जो कहते कुछ तो करते कुछ हैं. कौन नहीं जानता कि परिवारवाद में लिप्त नेताओं के द्वारा धन और संपत्ति बनाने की लालसा ने ही राजनीति को दूषित और कलंकित किया है. शायद इसी कारण हमारे नुमाइन्दों का भृष्टाचार, नौकरशाहों को भी इसी डगर पर चलने को प्रोत्साहित करता है. चूँकि देश के तंत्र के यही दो अहम हिस्सा होते हैं इसलिए कौन किस पर उंगली उठाएगा इसका सवाल ही नहीं. शायद इसीलिए भृष्टाचार तमाम कोशिशों और कागजों में बने कानूनों के बाद बजाए थमने के बढ़ता ही जा रहा है जिसने मुरादनगर में सारी हदों को पार कर शर्मसार कर दिया.
आज से 60 साल पहले इन्दौर में एक पदयात्रा के दौरान सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे के मुँह से निकले शब्द आज भी न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि गूँजते हुए से लगते हैं जिसमें उन्होंने पीड़ा भरे लहजे में कहा था आजकल भृष्टाचार ही शिष्टाचार है. यकीनन उस महान संत का दर्द कहें या पीड़ा या समझ या फिर दूरदर्शिता वाकई में 21 वीं सदी में भी भृष्टाचार और भृष्टाचारी ही फलफूल रहे हैं. समझते, जानते हुए भी इसे रोकने वाले या तो नासमझ बने हुए हैं या फिर अनजान और बेजार. ऐसा ही कुछ 21 दिसम्बर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में डॉ राममनोहर लोहिया ने भी कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच का संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ है. शायद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी ऐसा ही कुछ कहना चाहते थे. दिल्ली से चले एक रुपए में गरीब तक 15 पैसे ही पहुँच पाते हैं कहना उनकी बेबसी थी या गुस्सा पता नहीं. सच तो यह है कि देश भर में ऐसे कितने उदाहरण मिल जाएंगे जहाँ कागजों में तालाब बन जाते हैं, विभिन्न योजनाओं में कुंएं खुद जाते हैं. उद्घाटन से पहले पुल ढ़ह जाते हैं. बनते ही सड़कें नेस्तनाबूद हो जाती हैं. हो हल्ला होने पर जाँच की घोषणा हो जाती है लेकिन रिपोर्ट कब और क्या आती है किसी को कानों कान खबर तक नहीं हो पाती है. भृष्टाचार का आरोपी फलता-फूलता रहता है. अब तो अधिकारी नेताओं के शागिर्द बने नजर आते हैं. अनेकों मौकों पर यह देखने में आया कि राजनीतिक मंच और नारे लगाने में भी नौकरशाहों को कोई शर्म नहीं आती. हद तो तब होती है जब प्रदेशों में सरकार बदलते ही अधिकारियों की वफादारी बदलने के किस्से सामने होते हैं.
भृष्टाचार रुके कैसे? एक ओर तेजी से डिजिटलाइजेशन वहीं दूसरी ओर बढ़ता भृष्टाचार, रिश्वतखोरी और दलाली की प्रवृत्ति. वह भी जब सीधे खातों में योजनाओं का लाभ पहुंचाया जा रहा हो. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर-एशिया सर्वे 2020 यही कुछ कह रहा है. इसमें भारत को एशिया का सबसे ज्यादा भृष्ट देश बताया गया जहाँ रिश्वतखोरी जमकर होती है. रिपोर्ट कहती है कि 39 प्रतिशत लोगों को उनके हक की और स्वीकृत सुविधाओं को पाने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है. जिसका चलन डिजिटल दौर में बजाए घटने के बढ़ता जा रहा है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे बुरी बात और क्या हो सकती है? कहीं न कहीं यह हमारे सिस्टम की नाकामी है. दोष किसका है किसका नहीं यह लंबी और तर्क-कुतर्क भरी बहस का विषय है.
यूँ तो देश में भृष्टाचार को रोकने के लिए कई तरह के कानून और एजेंसियाँ हैं. लंबा-चौड़ा अमला भी है. एक से एक आदर्श वाक्य और सूत्र भी हैं. लेकिन सच भी है कि यह सुरसा सा मुँह फाड़े चला जा रहा है. देश में चाहे निर्माण सेक्टर हो या औद्योगिक गतिविधियाँ, टैक्स चोरी रोकना हो या उत्खनन, चिकित्सा, शिक्षा, बैंकिंग, परिवहन या फिल्म उद्योग यानी देश में हर कहीं हर सरकारी दफ्तर में भृष्टाचार की जड़ें गहरे तक पैठ जमा चुकी हैं. ठेका हो या कोई अनुमति, निर्माण हो या जल, जंगल, जमीन का मसला हर कहीं भृष्टाचार शिष्टाचार सरीखे बेशर्मी से मुस्कुराता दिख जाता है. जेब गरम होते ही सारे रुके काम आसानी से हो जाते हैं भले ही रास्ता डिजिटल मोड में क्यों न हो. ऐसे में सवाल बस यही कि कैसे रुकेगा भृष्टाचार?
निश्चित रूप से देश को दुनिया के मुकाबले शीर्ष पर ले जाने का सपना संजोए हमारे प्रधानमंत्री भी इस पर बेहद गंभीर होंगे. लेकिन रास्ता कैसा होगा तय नहीं हो पा रहा होगा. काश एक वन नेशन वन राशनकार्ड की तर्ज पर एक ऐसा वन नेशन वन इंफर्मेशन पोर्टल बने जिसमें तमाम देश यानी केन्द्र और प्रदेशों के हर कार्यों जैसा ठेका, इजाजत, स्थानान्तरण, सरकारी गतिविधियों संबंधी सूचना की एक-एक जानकारी की फीडिंग तो की जा सके लेकिन इस पोर्टल की सारी जानकारियाँ केवल प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री ही देख सकें. उनकी बेहद विश्वस्त लोगों की एक टीम हो जो रेण्डमली किसी भी काम की जाँच के लिए न केवल स्वतंत्र हो बल्कि एनएसए जैसे सख्त कानूनों से लैस हो. दोषी होने पर जल्द जमानत या सुनवाई का प्रावधान भी न हो और सीधे जेल की काल कोठरी का रास्ता हो. शायद यही डर और गतिविधि से पंचायत से लेकर महापालिकाओं और सरपंच के दफ्तर से लेकर कमिश्नरी और सचिवालय तक में एक भय का माहौल बनेगा. संभव है कि इससे सुधार आए और नरेन्द्र मोदी की दूरदर्शी और भृष्टाचार विरोधी मंशा पूरी हो पाए!
(लेखक-ऋतुपर्ण दवे )