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ब्रम्हांड -जैन धर्म,हिन्दू धर्म और विज्ञान के अनुसार

ब्रम्हांड -जैन धर्म,हिन्दू धर्म और विज्ञान के अनुसार

 
ब्रहांड के बारे में हर धर्म में अलग अलग वर्णन किय गया हैं और वह वर्णन एक की अपेक्षा सही मान्य हैं और आज  वैज्ञानिक युग जो प्रैक्टिकल पर भरोसा करती हैं उसने भी कुछ अपनी मान्यताएं बनाकार सिद्ध  करने का प्रयास किया और वे मान्यताएं कुछ कुछ धर्म सिद्धांतों से मिलती हैं ,इससे यह भी सिद्ध होता हैं की हजारों वर्षों पूर्व जो सिद्धांत प्रतिपदित किये गए थे वे तत्समय की मुनियों ,ऋषियों ,संतों ने अपने चिंतन मनन से किया हॉ आज भी मान्य हैं। इससे यह मान्यताओं को बल मिलता हैं की हज़ारों वर्ष पूर्व जो बात बताई गई थी वह आज भी प्रचलन  में हैंजो मान्य हैं।
जैन धर्म सृष्टि को अनादिनिधन बताता है यानी जो कभी नष्ट नहीं होगी। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड हमेशा से अस्तित्व में है और हमेशा रहेगा। यह ब्रह्मांड प्राकृतिक कानूनों द्वारा नियंत्रित है और अपनी ही ऊर्जा प्रक्रियाओं द्वारा रखा जा रहा है। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड शाश्वत है और ईश्वर या किसी अन्य शक्ति ने इसे नहीं बनाया। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड हमेशा से अस्तित्व में नहीं था, इसकी उत्पत्ति बिग बैंग से हुई थी। .
जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति हैं जिन्होनें पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की हो)। तीर्थंकर को इस नाम से कहा जाता है क्योंकि वे "तीर्थ" (पायाब), एक जैन समुदाय के संस्थापक हैं, जो "पायाब" के रूप में "मानव कष्ट की नदी" को पार कराता है। .
नासा
महाविस्फोट प्रतिरूप के अनुसार, यह ब्रह्मांड अति सघन और ऊष्म अवस्था से विस्तृत हुआ है और अब तक इसका विस्तार चालू है। एक सामान्य धारणा के अनुसार अंतरिक्ष स्वयं भी अपनी आकाशगंगाओं सहित विस्तृत होता जा रहा है। । ब्रह्मांड का जन्म एक महाविस्फोट के परिणामस्वरूप हुआ। इसी को महाविस्फोट सिद्धान्त या बिग बैंग सिद्धान्त कहते हैं। तारा भौतिकविद जिसके अनुसार से लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था।  उस समय मानवीय समय और स्थान जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी।महाविस्फोट सिद्धांत के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व इस धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सर्जन  हुआ। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे महाविस्फोट सिद्धांत कहा जाता है। महाविस्फोट नामक इस महाविस्फोट के धमाके के मात्र १.४३ सेकेंड अंतराल के बाद समय, अंतरिक्ष की वर्तमान मान्यताएं अस्तित्व में आ चुकी थीं। भौतिकी के नियम लागू होने लग गये थे। १.३४वें सेकेंड में ब्रह्मांड १०३० गुणा फैल चुका था और क्वार्क, लैप्टान और फोटोन का गर्म द्रव्य बन चुका था। १.४ सेकेंड पर क्वार्क मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाने लगे और ब्रह्मांड अब कुछ ठंडा हो चुका था। हाइड्रोजन, हीलियम आदि के अस्तित्त्व का आरंभ होने लगा था और अन्य भौतिक तत्व बनने लगे थे। महाविस्फोट सिद्धान्त के आरंभ का इतिहास आधुनिक भौतिकी में जॉर्ज लिमेत्री ने लिखा हुआ है। लिमेत्री एक रोमन कैथोलिक पादरी थे और साथ ही वैज्ञानिक भी। उनका यह सिद्धान्त अल्बर्ट आइंसटीन के प्रसिद्ध सामान्य सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आधारित था। महाविस्फोट सिद्धांत दो मुख्य धारणाओं पर आधारित होता है। पहला भौतिक नियम और दूसरा ब्रह्माण्डीय सिद्धांत। ब्रह्माण्डीय सिद्वांत के मुताबिक ब्रह्मांड सजातीय और समदैशिक (आइसोट्रॉपिक) होता है। १९६४ में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्गस ने महाविस्फोट के बाद एक सेकेंड के अरबें भाग में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जो भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था। इसे बाद में 'हिग्गस-बोसोन' के नाम से जाना गया। इस सिद्धांत ने जहां ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों पर से पर्दा उठाया, वहीं उसके स्वरूप को परिभाषित करने में भी मदद की।
ब्रह्माण्ड (हिन्दू धर्म)
ब्रह्माण्ड शब्द का अर्थ खगोल से लिया जाता है। अगर हम‌ भौतिक रूप से ब्रह्माण्ड को समझना चाहें तो हम ब्रह्माण्ड को सरल भाषा में ऐसे परिभाषित कर सकते हैं कि ब्रह्माण्ड वो है जिसके क्षेत्र में सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि स्थित हैं और इस क्षेत्र के अस्तित्व का मूल आधार वो सारे तत्व हैं, जिनके द्वारा ब्रह्माण्ड में स्थित सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि निर्मित हैं। ब्रह्माण्डीय क्षेत्र और सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारों आदि के मध्य मात्र इतना सा अन्तर है कि ब्रह्माडीय क्षेत्र, तत्वों के "मूल" रूप से निर्मित है जोकि स्वतन्त्र हैं, जबकि सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि इन्हीं तत्वों के किसी कारणवश आपस में जुडने और जुड़ कर टुटने से निर्मित हैं। .
     विष्णु पुराण के अनुसार वर्णन
  यह ब्रह्माण्ड कपित्थ (कैथे) के फ़ल की भांति, अण्डकटाह से घिरा हुआ है।
यह कटाह अपने से दस गुने परिमाण के जल से घिरा हुआ है।
यह जल अपने से दस गुने परिमाण के अग्नि से घिरा हुआ है।
यह अग्नि अपने से दस गुने परिमाण के वायु से घिरा हुआ है।
यह वायु अपने से दस गुने परिमाण के आकाश से घिरा हुआ है।
यह आकाश अपने से दस गुने परिमाण के तामस अंधकार से घिरा हुआ है।
यह तामस अंधकार अपने से दस गुने परिमाण के महत्तत्व से घिरा हुआ है।
                  महत्तत्व अपरिमेय, असीमित   तत्वों के वृहद् से वृहद्तर रूप से निर्मित सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि जो ब्रह्माण्ड के एक एक अंग हैं, इनका वर्गिकरण मानव ने इनकी प्रकृति के अनुसार किया हैं। भारत के ॠषियों ने इन तारों और ग्रहों के विषय में खगोल शास्त्र के माध्यम से लगभग २२०० साल पहले ही पता लगा लिया था। भागवत पुराण के अनुसार ॠषि बाराहमिहिर ने २७ नक्षत्र, ७ ग्रहों तथा ध्रुव तारे को वेधने के लिये एक जलाशय में मेरु स्तम्भ का निर्माण करवाया था। इस मेरु स्तम्भ में ७ ग्रहों के लिये ७ मंजिल और २७ नक्षत्रों के लिये २७ रोशनदानों का निर्माण काले पत्थरों से करवाया गया था तथा इसके चारों तरफ़ मन्दिर स्वरूपी २७ वेधशालायें स्थापित की गयीं थी।
           जैन दर्शन
           जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है। इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार 24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनरावर्ण  हुआ । इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्मकाण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया। जैन दर्शन के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है। सत्य का अनुसंधान करने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ से मानी गई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनो के उपदेशों को मानने वाले जैन तथा उनके साम्प्रदायिक सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हुए। जैन दर्शन ‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर (महापुरूष, जैनों के ईश्वर) हुए जिनमें प्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम महावीर (वर्धमान) हुए। इनके कुछ तीर्थकरों के नाम ऋग्वेद में भी मिलते हैं, जिससे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है। जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ प्राकृत (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ के आसपास आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में व्याकरण, दर्शन, काव्य, नाटक आदि की रचना की। संक्षेप में इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं- .
       जैन धर्म
       जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .
        जीव
      कवक जीव (ऑर्गैनिस्म ) शब्द जीवविज्ञान में सभी जीवन-सन्निहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे: कशेरुकी जन्तु, कीट, पादप अथवा जीवाणु। एक जीव में एक या एक से अधिक कोशिकाएँ होते हैं। जिनमें एक कोशिका पाया जाता है उसे एक कोशिकीय जीव है; एक से अधिक कोशिका होने पर उस जीव को बहुकोशिकीय जीव कहा जाता है। मनुष्य का शरीर विशेष ऊतकों और अंगों में बांटा होता है, जिसमें कोशिकाओं के कई अरबों की रचना में बहुकोशिकीय जीव होते हैं। .
      विज्ञान
     संक्षेप में, प्रकृति के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान (साइंस ) कहते हैं। विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से मिलती है, जो किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कह सकते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के 'ज्ञान-भण्डार' के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है। .
     अजीव
     अजीव शब्द का अर्थ होता हैं जिसमें जान न हो। कुर्सी मेज, पन्ना आदि अजीव वस्तु के उदहारण हैं। जैन दर्शन के अनुसार यह सात तत्त्वों में से एक तत्त्व हैं। .जैन धर्म सृष्टि को अनादिनिधन बताता है यानी जो कभी नष्ट नहीं होगी। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड हमेशा से अस्तित्व में है और हमेशा रहेगा। यह ब्रह्मांड प्राकृतिक कानूनों द्वारा नियंत्रित है और अपनी ही ऊर्जा प्रक्रियाओं द्वारा रखा जा रहा है। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड शाश्वत है और ईश्वर या किसी अन्य शक्ति ने इसे नहीं बनाया। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड हमेशा से अस्तित्व में नहीं था, इसकी उत्पत्ति बिग बैंग से हुई थी।
           द्रव्य (जैन दर्शन)
          जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड में यह छह द्रव्यो में से कभी कुछ नष्ट या बनाया नहीं जाता है, वे बस एक रूप से दूसरे में बदल जाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार लोक ६ द्रव्यों से बना है:--जीव (आत्मा अर्थात चेतन) अजीव (अचेतन पदार्थ) पुदग़लास्तिकाय (मैटर) धर्मास्तिकाय द्रव्य अधर्मास्तिकाय द्रव्य।,आकाशास्तिकाय ,काल
          लोक
           जैन ग्रंथो में ब्रह्मांड के लिए "लोक" शब्द का प्रयोग किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार 'लोक' तीन भाग में विभाजित है[4]:
1ऊर्ध्व लोक- देवों का निवास स्थान 2मध्य लोक - मनुष्य, तिर्यंच और वनस्पति ,अधो लोक- सात नर्क और निगो
         मध्य लोक  जंबूद्वीप,जंबूद्वीप में ६ विशाल पर्वत है जो इसे ७ क्षेत्रों में विभाजित करते है। इन क्षेत्रों के नाम है[5]: भरत क्षेत्र, हैमवत क्षेत्र
हरिवर्ष क्षेत्र ,विदेह क्षेत्र,रम्यक क्षेत्र, हैरण्यवत क्षेत्र ,ऐरावत क्षेत्र
         काल
       अनंत समय का चक्र दो भागो में विभाजित है। पहली छमाही है आरोही क्रम, उत्सर्पणि (प्रगतिशील चक्र)। अन्य आधा है अवसर्पणी (प्रतिगामी चक्र) या अवरोही क्रम।
             जैन कालचक्र
          अवसर्पणी के छह आरा (युग) है :-सुखम-सुखम (बहुत अच्छा),सुखम (अच्छा),सुखम-दुखम (अच्छा बुरा),दुखम-सुखम (बुरा अच्छा) -  दुखम (बुरा) - आज का युग,दुखम-दुखम (बहुत खराब)
इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से जैन ,हिन्दू दर्शन द्वारा प्रतिपदित ब्रह्माण्ड से सम्बंधित सिद्धांतों की विज्ञान ने भी पुष्टि की हैं
(लेखक/-अरविन्द प्रेमचंद जैन)

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