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श्रीरामचरितमानस एवं तेलुगु मोल्ल रामायण में अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग 

श्रीरामचरितमानस एवं तेलुगु मोल्ल रामायण में अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग 

हिन्दी तथा तेलुगु भाषाओं में श्रीरामकथा के साहित्य की रचना विभिन्न परिस्थितियों में हुई है, किन्तु अत्यन्त ही आश्चर्य की बात है कि उनमें कथावस्तु की एकता के साथ-साथ सांस्कृतिक भिन्नता के दर्शन भी प्राप्त हो जाते हैं। अत: एक ही विषय पर दो विभिन्न भाषाओं की रचनाओं में श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग पाठकों के समक्ष रखना प्रमुख उद्देश्य है। इसमें श्रीरामचरितमानस और तेलुगु मोल्ल रामायण में उत्तर तथा दक्षिण की सांस्कृतिक एकता पर विचार किया गया है। भारत में भले ही आचारगत विभिन्नता है किन्तु उसमें सदैव भावात्मक एकता भी है।
लगभग समस्त भाषाओं की श्रीरामकथाओं का मूल स्त्रोत वाल्मीकि रामायण है। प्रसिद्ध विद्वान लेखक डॉ. कामिल बुल्के ने अपनी पुस्तक, 'रामकथाÓ में इसका निरुपण किया है।
इन श्रीरामकथाओं में पारिवारिक सम्बन्ध की विवेचना गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में श्रीराम के संयुक्त परिवार के माध्यम से की है तथा यह भी उल्लेख किया है कि भारत में यह प्रथा कितनी आवश्यक एवं समाज में महत्वपूर्ण क्यों है? संयुक्त परिवार (सम्मिलित परिवार) को परिवार की आत्मा बताया है। तुलसीदासजी भाई-भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्री, माता-पुत्र, स्वामी-सेवक आदि तक के सम्बन्धों की विवेचना अद्भुत है। यह विवेचना यहीं तक सीमित नहीं है। यहाँ तक कि पालित पशु-पक्षियों के सम्बन्धों का भी उल्लेख परिवार के साथ कैसा होना चाहिए, बताया गया है।
पिता-पुत्र का सम्बन्ध
पिता-पुत्र के सम्बन्ध का प्रतीक दशरथ और राम, रावण और मेघनाद का वर्णन कर बताया गया है। दशरथजी अपने पुत्र को स्वयं के मुख से वन जाने के लिए आज्ञा नहीं देते हैं। कैकेयी के मुख से सम्पूर्ण समाचार सुनकर प्रसन्नतापूर्वक राम वन जाने को तैयार हो जाते हैं। जब विश्वामित्र दशरथजी से राम को अपने आश्रम में राक्षसों के वध हेतु माँगते हैं तो उसके बदले में उस समय दशरथ स्वयं अपने को ही विश्वामित्रजी से उनको (दशरथजी को) साथ ले चलने का कहते हैं। इस प्रसंग का अत्यन्त ही सुन्दर निर्वाह मोल्ल रामायण में प्राप्त होता है। इसी तरह लंका में हनुमान् का आकर अशोक वाटिका के वृक्ष नष्ट करने पर एवं राक्षसों के वध उपरान्त रावण बहुत ही भयभीत हो जाता है। उस समय पिता की आज्ञा का पालन कर मेघनाद हनुमान्जी को युद्ध करके बन्दी बनाकर ले आता है। मोल्ल रामायण के इस प्रसंग में पिता-पुत्र का सम्बन्ध पारिवारिक प्रेम (अनुराग) के ढाँचे पर बताया गया है। मेघनाद का लक्ष्मण के द्वारा वध हो जाने का समाचार सुनकर रावण पुत्र शोक के सागर में डूब जाता है। इस प्रसंग का बड़ी करुणा के साथ मोल्ल रामायण में वर्णन प्राप्त होता है।
पति-पत्नी का सम्बन्ध
आदर्श पति-पत्नी का प्रतीक श्रीराम और सीताजी है। एक आदर्श पति के समान श्रीराम वन के भीषण कष्टों का दु:ख बतलाकर सीताजी को अयोध्या के राजमहल में रहने का परामर्श देते हैं किन्तु सीता के पति वियोग के वियोग को अत्यन्त ही असहनीय-पीड़ादायक कहकर वन में पति के साथ संयोग के आकर्षण-आनन्द का विशेष महत्व बतलाती है तथा उनके साथ चलने का हठ करती है। मोल्ल रामायण में इस मार्मिक प्रसंग का कहीं भी वर्णन नहीं है। जब रावण सीताजी से प्रेम की याचना करके राम की निन्दा करता है तब सीता रावण के सामने अपने सतीत्व की रक्षा करती हुई रामजी की भूरी भूरी प्रशंसा करती है।
पिता-पुत्री का सम्बन्ध
पिता-पुत्री सम्बन्ध का प्रतीक राजा जनक और सीता है। जिस प्रकार एक साधारण पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए विघ्न आने पर वेदना प्रकट करता है उसी प्रकार सीताजी के स्वयंवर में जनकजी भी अनुभव करते हैं। मानस में इस भाव का सजीव चित्रण किया गया है। मोल्ल रामायण में भी धनुष किसी से नहीं टूटता है तब जनकजी भय व्यक्त करते हैं कि कहीं उनकी पुत्री सीता अविवाहित न रह जाए।
माता एवं पुत्र का सम्बन्ध
माता एवं पुत्र के सम्बन्ध का प्रतीक कौसल्या और राम हैं। मानस में वन गमन के पूर्व जब राम माता कौसल्या के पास आशीर्वाद प्राप्त करने जाते हैं तब कौसल्याजी बड़े धैर्य के साथ उन्हें वनगमन की स्वीकृति दे देती हैं। कौसल्या के समक्ष राम और भरत दोनों समान हैं। उसी प्रकार सुमित्रा भी लक्ष्मण को राम के ईश्वरत्व का परिचय देकर उनकी सेवा करने का उपदेश देती हैं। मानस में सुमित्रा राम को पिता एवं सीता को माता मानकर उनकी सेवा करने का उपदेश ही नहीं छाया बनकर साथ रहने का उपदेश देती हैं। इस विषम परिस्थिति में सुमित्रा एक माँ के रूप में पुत्र के कल्याण के लिए इससे अधिक और क्या कर सकती है? मोल्ल रामायण में इस प्रकार के मार्मिक प्रसंगों का उल्लेख नहीं है।
माता एवं पुत्र के सम्बन्धों में कुछ लोग भरत के द्वारा माता कैकेयी के प्रति कटु कहे गए वचनों और उनके साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण भरत को बुरा पुत्र निरूपित किया गया है। लोकोन्मुख प्रवृत्ति के अनुसार व्यक्ति साधना और सांसारिक व्यवहार में अन्तर करके तुलसीदासजी भरत के भ्रातृ प्रेम का चित्रण करते हैं। माता के व्यवहार पर घृणा प्रकट करते हुए भरत यह दिखाना चाहते हैं कि उनके मन में श्रीराम के प्रति कितना अनुराग और श्रद्धा है। यह भरत और राम के आदर्श भाईयों के सम्बन्ध हैं, जिसे मानस में अद्वितीय बताया है। मोल्ल रामायण में चित्रकूट में राम-भरत मिलन का सुन्दर वर्णन है। इस प्रसंग में राम अपना निस्वार्थ भ्रातृप्रेम व्यक्त करते तथा भरत राम के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का पालन करते हैं।
श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी ने भाई-भाई के आपसी सम्बन्धों को त्याग की आधार भूमि पर खड़ा बताते हैं। मानस में वैयक्तिक और सामाजिक आदर्शों का भण्डार है। नव विवाहिता पत्नी (उर्मिला) को अकेले छोड़कर तन-मन से भाई-भाभी की सेवाओं में प्रवृत्त होना कोई साधारण काम नहीं है। यह आदर्श त्याग लक्ष्मण का कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। जहाँ तक पारिवारिक सम्बन्धों की मान्यता है, इसका मानस में पूर्णत: निर्वाह किया गया है। इस दृष्टि से मोल्ल रामायण में पारिवारिक मान्यता का निर्वाह प्राय: लुप्त है।
पारिवारिक क्षेत्र में समन्वय की भावना
मानस में पारिवारिक क्षेत्र में पिता-पुत्र, पति-पत्नी, सास-पुत्रवधू, पति-पत्नी में जो सम्बन्ध बताया है वह भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब है। मानस के श्रीराम पिता के जितने भक्त हैं उतने ही वे अपनी माताओं के भी हैं। इस तरह एक श्रेष्ठ आदर्श परिवार की प्रतिष्ठा मानस के समान मोल्ल रामायण में लगभग देखने को मिलती नहीं है।
गुरु-शिष्य सम्बन्ध
गुरु की पूज्य एवं सामान्य स्थिति को बतलाने के लिए श्रीराम ने राज्याभिषेक की प्रस्ताव के साथ तुलसीदासजी ने राजा दशरथ को वसिष्ठ का विनयी के रूप में चित्रित किया है। स्वयं महर्षि वसिष्ठ राम को युवराज के पद की सूचना देकर संयम करने की शिक्षा देते हैं। मोल्ल रामायण में भी दशरथ स्वयं वसिष्ठजी से राम के राज्याभिषेक की चर्चा करते हैं। राम वसिष्ठ जी के माध्यम से मानस में गुरु के पद-पद्म-पराग की परिकल्पना को पूर्णत: चरितार्थ कर दिखाया है। वसिष्ठजी को राम के परब्रह्मत्व का ज्ञान है फिर भी गुरु भक्ति के लौकिक आदर्श का सूत्र यहाँ विच्छिन्न नहीं हुआ। दूसरी तरफ मोल्ल रामायण में विश्वामित्र राम के गुरु होकर भी अहल्योद्धार के समय राम की स्तुति अवतार के रूप में करते हैं। इस तरह विश्वामित्र और राम में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का निर्वाह नहीं हुआ है। जबकि मानस में बालकाण्ड के अन्तर्गत धनुर्भंग एवं वाटिका वर्णन के सन्दर्भ में विश्वामित्र के प्रति राम एवं लक्ष्मण भक्तिभाव प्रदर्शित करते हैं। राम-लक्ष्मण दोनों के शील संकोच पूर्ण, आज्ञाकारिता, सेवा-परायणता तथा भक्ति-भावना का चित्रण कवि की आदर्श प्रियता का प्रमाण है। गुरु, माता-पिता की त्रयी (त्रिवेणी) में उन्होंने प्राय: सर्वत्र गुरु को ही प्राथमिकता दी है। चित्रकूट की विराट सभा में विशिष्ट लक्ष्य करते हुए राम का कथन है- वह मानस के तत्सम्बन्धी लोकादर्श का व्यावहारिक रूप है। मानस में यह गुरु के सम्बन्धों के आदर्श अपनी ऊँचाई में इतना महान है कि धनुर्भंग के अवसर पर जब श्रीराम को अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों में प्रत्यक्षत: प्रणाम करने का अवसर नहीं मिलता है तो हम देखते हैं कि गुरु के चरणों पर नतमस्तक होकर ही धनुर्भंग के लिए चल पड़ते हैं।
राजा और प्रजा के सम्बन्ध
मानस के राम वात्सल्य की भावना अपनी प्रजा के प्रति रखते हैं तथा इसमें स्वाभाविकता दिखाई देती है। प्रजा से भी प्रेम श्रद्धा-भक्ति प्राप्त करने के लिए राजा को सदैव प्रयत्न कर तत्पर रहना चाहिए। राजा को अपने राज्य में पितृत्व की भावना से प्रजा के प्रति आदर और प्रेम प्रदर्शित करना चाहिए। राजा को प्रजा के ऊपर इस प्रकार की कर प्रणाली को लगाना चाहिए कि प्रजा को उसका भार अनुभव नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार की सूर्य अपनी किरणों से धरा पर जल सोखकर वही जल वर्षा के रूप में संसार को लौटा देता है। यह सब हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है। मोल्ल रामायण में राजा के कर्त्तव्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आदर्श राजा के अभाव में प्रजा को पीड़ा होती है उसे अयोध्यावासी अच्छी तरह जानते हैं तथा वे इस पीड़ा को सह नहीं सके। इसीलिए वे कैकेयी और दशरथ की प्रजा ने निन्दा करके श्रीराम के प्रति अपना प्रेम-श्रद्धा-अनुराग व्यक्त करती है। इस तरह मानस में अयोध्यावासियों के लिए श्रीराम एक आदर्श राजा हैं।
(लेखक- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता)
 

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