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बैंकों के प्रति बदलता सरकारी रुख 

बैंकों के प्रति बदलता सरकारी रुख 

यह वर्ष जहाँ एक तरफ कोरोना वर्ष के रूप में याद किया जाएगा वहीं दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था और वित्तीय संस्थानों के लिए भी कोरोना जैसे घातक नीतियों के वायरस से पीड़ित के रूप में भी याद किया जाएगा। देश के निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुए लगभग 50 वर्ष से अधिक हो चुके हैं, परन्तु पिछले वैश्वीकरण के दौर के बाद की सरकारों की नीतियों ने सार्वजनिक बैंकों को धीरे-धीरे आर्थिक रूप से कमजोरी यानि दीवालिया होने की ओर धकेलना शुरू कर दिया था। निम्न प्रकार के संकट सरकारी बैंकों के सामने आ रहे है :- 
1.    बैंकों में एन.पी.ए. की वृद्धि सरकारी बैंकों के एन.पी.ए. में देश की जनता की लगभग 16.6 लाख करोड़ रूपया की पूँजी फंसी है, और जून 2019 में एन.पी.ए. बढ़कर 9.4 लाख करोड़ का हो चुका है, जिसमें से 6.6 लाख करोड़ रूपये को डूबत खाते में डाल दिया गया है। याने लगभग यह मान लिया गया है कि यह राशि वसूल नहीं हो सकेगी। देश के एक बड़े सरकारी बैंक भारतीय स्टेट बैंक का एन.पी.ए. मात्र कुछ ही समय में बढ़कर लगभग 4 गुना हो गया है, यह पहले 2.3 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 9.3 प्रतिशत हो गया है।  
2.    आर.बी.आई. के आँकड़े बताते है कि, कर्ज में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी 2015 में 74.3 प्रतिशत थी जो अब घटकर 59.8 प्रतिशत हो गई है, और निजी बैंकों की कर्ज देने की हिस्सेदारी 21.13 प्रतिशत से बढ़कर 36 प्रतिशत हो गई, जबकि इन सरकारी बैंकों के कर्ज में एक बढ़ा हिस्सा बैंक व अन्य कर्मचारियों के कर्ज का है, और सरकार द्वारा निर्धारित कर्ज का भी है। याने वह कर्ज जो सरकारी बैंकों को देना सरकार की नीतियों के कारण अनिवार्य है।  
3.    बैंकों के एन.पी.ए., डूबत खाते और कर्ज, वसूली की बाधाओं के कारण बैंक आर्थिक बदहाली की स्थिति में है। इससे बैंकों की होने वाली बदनामी से बचने और असलियत को छिपाने के लिए सत्ता और प्रबंधन की सांठगाँठ से कर्जे के लिए दो श्रेणियों में बांट दिया गया है। पहले को बेड लोन कहा जाता है, याने जिसकी वसूली में कठनाईयां आती हो। पर सच्चाई तो यह है कि, केवल छोटे और मझोले कर्जदार याने सरकारी कर्मचारी और किसान को दिया गया कर्ज ही गुड लोन है, जिसके वसूल होने की लगभग 100 प्रतिशत गारंटी है, बकाया निजी उद्योगपतियों को राजनैतिक दबाव और भ्रष्टाचार या पक्षपात में दिए गए हजारों करोड़ वाले ऋण बेड लोन बताकर अलग चिन्हित कर दिए जाते है, और उनकी वसूली की प्रक्रिया भी अलग प्रकार की होती है। कर्मचारी के ऋण की वसूली उसके वेतन पेंशन से हो जाती है किसान के ऋण की वसूली उसे पुन: दिए जाने वाले ऋण के नाम पर मानसिक दबाव में हो जाती है, परन्तु उद्योगपतियों को दिए गए ऋण की वसूली रेत से तेल निकालने के समान होता है।  
4.    विजय माल्या, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी जैसे लोग जो सरकारी बैंकों का हज़ारों करोड़ रूपया लेकर विदेश भागे है यह बगैर सत्ता के इशारे के संभव नहीं हैं। और यह भी आश्चर्यजनक है कि, विदेश से सालों से इन लोगों की वापिस होने की चर्चा होती है, परन्तु कोई सरकार इन्हें वापिस नहीं ला पाती। इनके परिवार के लोग शान से देश में भारी संपत्तियों के साथ रह रहे है। साल में कई माह तक विदेशों में जाकर भगोड़े के साथ रहते है और सरकार ऐसा प्रदर्शित करती है कि जैसे इन्हें लाने के लिए बड़े गंभीर प्रयास हो रहे है। यहाँ तक कि इन भगौड़ों को वापिस लाने के नाम पर राजनेता दिल्ली की गद्दी हथिया लेते है, परन्तु भगोड़े वापिस नहीं आते है। यह एक सामान्य सी बात है कि संबंधित देश या सरकार ने इन भगोड़ों की वापिसी के लिए राजनैतिक और कूटनीति समझौते और वार्ता कर निर्णय कराया होता तो इनकी वापिसी कोई कठिन कार्य नहीं थी। अगर पुरूलिया में हवाई जहाज से हथियार गिराने वाले अपराधी को भारत की जेल से छोड़ा जा सकता है, अगर भारत के निरीह और निर्देष मछुआरों की हत्या करने वाले इटली के नौसैनिकों को राजनैतिक आधार पर मुक्त किया जा सकता है, तो बैंकों के पैसे खाकर भागे हुए भगोड़ों को वापिस क्यों नहीं लाया जा सकता।  
5.    एक नया जुमला चला है क्रोनी कैपिटलिज़म याने याराना पूँजीवाद। राजनैतिक सत्ता और पूँजीपति के संबंधों से यह याराना पूँजीवाद पनपता है। आई.सी.आई.सी.आई. बैंक की सी.ई.ओ. चन्दा कोचर जिन्हें कुछ समय पहले तक देश व दुनिया का मीडिया दुनिया की महान प्रभावशाली महिलाओं में शामिल करता था ने अपने पति की कंपनी न्यू पावर रिन्यूवेविल लि. कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए अपने पद का दुरूपयोग कर वीडियोकॉन कंपनी को 3250 करोड़ का ऋण दिया था, जो वसूल नहीं हुआ और फिलहाल बेड लोन का तमगा लगाकर डाल दिया गया। नीरव मोदी और मेहुल चौकसे के गीतांजली जेम्स के लिए पंजाब नेशनल बैंक से फर्जी साख पत्र जारी कराए और उसके आधार पर भारतीय बैंकों की विदेशी शाखाओं से कर्ज निकाल लिया। यस बैंक के राणा कपूर 4300 करोड़  के आरोपी है। राकेश और सारंग बाद्यवान पंजाब और महाराष्ट्र कार्पेरेटिव बैंक से 6 हज़ार करोड़ के जालसाजी के अपराधी है और ऐसे ही कितने अन्य उदाहरण यराना पूँजीवाद के दिए जा सकते है।  
6.    रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने एक कार्यकारी समूह का गठन बैंकिंग में सुधार के लिए किया है, परन्तु इस समूह के सुझाव बैंकिंग प्रणाली को ही नष्ट करने वाले है। इस समूह ने एक सुझाव यही दिया है, कि बैंकिंग विनियम अधिनियम 1949 में संशोधन कर बड़े कारोबारी को बैंक का प्रमोटर बनने की मंजूरी दी जाए। अब यदि यह मंजूरी दे दी जाती है तो उद्योग घराने पुन: अपने बैंक बनाने में सफल होंगे व उन बैंकों के माध्यम से देश के आम आदमी की पूँजी जमा करेंगे तथा फिर उसे अपने उद्योग धन्धे में डुबाएंगे। यह एक प्रकार से बैंकों के निजीकरण को पुन: वापिस लाने की शुरूआत है। इस प्रक्रिया से सरकारें बदनामी से बच जाएगी और याराना पूँजीवाद को जनता की पूँजी को डुबाने का वैधानिक रास्ता मिल जाएगा। इस मसौदा कमेटी के एक सदस्य श्री चतुर्वेदी कहते है कि इसका मकसद 2024 तक याने 04 वर्षें में 50 खरब डॉलर की पूँजी जुटाना है, और इसका अगर वास्तविक अर्थ निकाला जाए तो देश के आम और गरीब आदमी की सारी जमा पूँजी निजी क्षेत्र को लुटाने की तैयारी है, यह एक भयावह सुझाव है।  
    योजनाबद्ध तरीके से सरकारी बैंकों के निजीकरण के लिए वातावरण बनाना शुरू कर दिया गया है। 5 सितम्बर 2019 के इंडियन एक्सप्रेस में आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर श्री सुव्वा राव का लेख छपा था जिसमें वे लिखते है कि ”50 वर्ष पहले सरकारी बैंकों ने दूरस्थ इलाकों में अपनी जगह बनायी और गरीबी उन्मुखी कार्यक्रम लागू किए जो अब पूरे हो चुके और इसलिए अब सरकारी बैंकों की क्या आवश्यकता है?“ यानी आवश्यकता नहीं है। बैंकों के निजीकरण के लिए वातावरण बनाने का एक सुनियोजित अभियान शुरू हो गया है, और अब कार्पेरेट अपने अस्तित्व और लाभ के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। जहाँ एक तरफ वे इन उच्च पदेन अधिकारियों को अपना सेवादार बनाकर उनका प्रयोग करेंगे, वहीं अगर संभव हुआ तो वे भारतीय लोकतंत्र को भी जो पहले ही धन तंत्र और नवराज तंत्र में परिवर्तित हो चुका है को भी समाप्त करने का प्रयास करेंगे।  
    सरकार की जाँच एजेंसियों के ऊपर बंधन लगाना शुरू हो गया है। म.प्र. सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग ने तो लिखित आदेश जारी कर कहा है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 17 ए के अनुसार किसी लोकसेवक द्वारा सरकारी कामकाज में किए गए अपराध या पूँछताछ के पहले सरकार की मंजूरी अनिवार्य होगी। याने अब सरकार समर्थक अपराधी जांच मुक्त हो जाएगे और केवल सरकार से भिन्नता रखने वाले ही, अपराधी होंगे। यह एक प्रकार से नौकरशाहों को घुटना टेक करने और पालतू बनाने का तरीका साबित होगा। लगभग यही स्थिति क्रमश: देश के अन्य राज्यों में भी होगी और एक तरफ याराना पूँजीवाद दूसरी तरफ निजीकरण और तीसरी तरफ जनधन के लुटेरों को संरक्षण, यह तीनों घातक हमले भारत की जनता पर एक साथ हो रहे है। देखना है कि, नए वर्ष में देश का जनमत अपनी क्या राय व्यक्त करता है? क्योंकि जनतंत्र में अंतत: जनमत ही सर्वेपरि है।  
 (लेखक- रघु ठाकुर)

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