
कालचक्र की गति भी निराली है। सृष्टि काल के स्वरूप को आंकडों की दृष्टि से देखे तो 1728000वर्षो तक सतयुग, 1296000 वर्षो तक त्रेता, 864000 वर्षो तक द्वापर और 432000 वर्षो के कलियुग को जोडकर 4320000 वर्षो के समय को चतुर्युगी कहा जाता है। एक हजार चतुर्युगी समय से ब्रहमा जी का एक दिन बनता है। जिसे कल्प कहते है। एक कल्प में 24 मन्वत्तर होते है और एक मन्वत्तर 71 चतुर्युगी का होता है। वर्तमान श्रीश्वेत बारह कल्प के स्वंयभू स्वरोचित, उत्तम तामस, रैवत तथा चाश्रुष नामक छ मन्वत्तर बीतने के बाद यह समय सातवें मन्वत्तर वेवस्वतु का चल रहा है। इस मन्वत्तर के 27 चतुर्युग व्यतीत हो चुके है और इस समय 28 वां चतुर्युग का कलियुग काल चल रहा है।
हांलाकि ज्ञानमार्गी लोग यानि ब्रहमाकुमारीज जैसी सस्थायें सृष्टिचक्र को पांच हजार वर्ष के कालचक्र रूप में देखते है। जिसमें साढे बारह सौ वर्ष का सतयुग, साढे बारह सौ वर्ष का त्रतायुग, साढे बारह सौ वर्ष का द्वापरयुग और साढे बारह सौ वर्ष का ही कलियुग माना गया है। जिसके तहत अब कलियुग के अन्त की धडी और सतयुग के आगमन का पूर्वकाल यानि संगमयुग जो बहुत ही कम समय का है जिसे परिवर्तन काल भी कहते है, चल रहा है। हांलाकि कुम्भ को भक्तिकाल समय गणना रूप में ही आयोजित किया जाता है। जिसके तहत कहा जाता है कि छठे मन्वत्तर चाश्रुष काल में समुद्र मंथन की धटना हुई थी।
जिसमें देवासुर संग्राम हुआ था। तभी से यानि समुद्र मंथन के समय अमृत कलश निकलने और उसे असुरों से बचाकर कलश लेकर भागने के दौरान देवताओं से जहां -जहां भी अमृत कलश छलका और अमृत की बून्दे जहां -जहां भी गिरी, वही -वही कुम्भ का महा पर्व मनाया जाने लगा।कहा कहा होता है कुम्भ -अर्धकुम्भ भक्तिकाल के शास्त्रों में दर्ज कथन के अनुसार अमृत कलश की बून्दे हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक और उज्जैन में गिरी थी तभी तो इन स्थानों पर कुम्भ का आयोजन प्रत्येक जगह 12 वर्ष में होता है। वही हरिद्वार और इलाहाबाद में 6 वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ का आयोजन भी होता है। जिसके लिए कुम्भ की तरह ही तैयारिया की जाती है और देश विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु इन आयोजनों में भागीदारी निभाते है। इस बार उज्जैन में कुम्भ और हरिद्वार में अर्धकुम्भ आयोजित किया जा रहा है।हरिद्वार, उज्जैन, इलाहाबाद और नासिक ऐसे धार्मिक शहर है जहां अमृत कलश से अमृत छलका था और तभी से इन शहरों में हर 12 साल बाद कुम्भ का महापर्व मनाया जाने लगा।इस बार उज्जैन में कुम्भ का आगाज हो गया है।वही हरिद्वार में अर्धकुम्भ का आयोजन किया रहा है।
समुद्र मथंन का स्थल थाईलैण्ड मुस्कुराहट की धरती के नाम से मशहूर थाईलैण्ड जिसे अलकापुरी और इन्द्रनगरी भी कहा जाता है, का भी कुम्भ से सीधा नाता है। यही वह धरती है जहां सुमेरू पर्वत को रई बनाकर समुद्र मंथन किया गया था।
पुराणों में आज भी सतयुग के समय हुए समुद्र मंथन का केन्द्र बिन्दू थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक में होने का उल्लेख मिलता है। तभी तो बैंकाक के अन्तर्राष्टृीय हवाई अडडे पर समुंद्र मंथन की भव्य झांकी बनी हुई है। इस झांकी में देवताओं और असुरो द्वारा समेरू पर्वत को रई व वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुंद्र मंथन करते दिखाया गया है। जिसके शीर्ष पर भगवान विष्णु विराजमान है। इस झांकी में देवता नाग की पूछ की तरफ और असुर यानि दैत्य नाग के फन की तरफ खडे हुए है। इस समुंद्र मंथन में जहां मां लक्ष्मी प्रकट हुई थी।वही अमृत कलश के साथ साथ ऐरावत यानि सफेद, कामधेनु, अश्वनी कुमार, रत्न विष और अप्सराएं भी निकली थी। इसका प्रभाव थाईलैण्ड में आज भी देखने को मिलता है। थाईलैण्ड का सफेद हाथी वहां की खास पहचान है। वही राजसत्ता का प्रतीक गरूड भी है।इस प्रकार समुंद्र मंथन में अप्सराओं की उत्पत्ति के कारण थाईलैण्ड में आज भी नारी नृत्य एवं वाणी माधुरयिता का खजाना देखने को मिलता है।
कहा छलकी थी अमृत की पहली बून्द कहा जाता है कि समुंद्र मंथन से जब अमृत निकला तो उस पर अधिकार जमाने के लिए दैत्यों और देवताओं में होड मच गई। अमृत कलश लेकर इन्द्र के पुत्र जयन्त भाग खडे हुए, जिनकी रक्षा हेतु सूर्य और गुरू बृहस्पति भी साथ साथ चले। जयन्त ने इस अमृत कलश को सबसे पहले हरिद्वार में नील धारा के पास रखा। यहां अमृत कलश की कुछ बून्दे छलककर भूमि पर गिर गई और हरिद्वारकी भूमि पवित्र हो गई। जिस स्थान पर अमृत बून्दे छलक कर गिरी थी , उसे ही अब नील कुण्ड के नाम से जाना जाता है। जयन्त ने हरिद्वार के बाद प्रयाग, उज्जैन और फिर नासिक में भी अमृत कलश रखा। अमृत कलश रखने के दौरान अमृत की बून्दे वहां भी गिरी। जहां जहां भी अमृत की बून्दे गिरी थी, वही वही कुम्भ की शुरूआत हो गई। इन स्थानों पर 12 वर्ष बाद कुम्भ और 6 वर्ष बाद अर्धकुम्भ का आयोजन किया जाता है।
हरिद्वार के कुम्भ में मेला प्रशासन लाखो श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद कर रहा है जिसमें विदेश से आने वाले आस्थावान भी शामिल है। माना जा रहा है कि देशी और विदेशी करोडों लोगों के कुम्भ में आने की सम्भावना के चलते उत्तराखंड सरकार ने विशेष तैयारिया की है। यह कुम्भ निर्विघ्न सम्पन्न हो इसके लिए पुख्ता इंतजाम किये गए है। स्वयं मुख्यमन्त्री त्रिवेंद्र सिंह हरिद्वार आकर कुम्भ की व्यवस्थाओं को देख चुके है। कुंभ में कई बार हादसे भी हुए है। कुम्भ स्नान के दौरान सन1960 के दशक में भारी बारीश और कीचड हो जाने से मची
भगदड में सैकडों लोगो की मौत हो गई थी। पिछले हरिद्वार कुम्भ में भी बिरला धाट के पुल पर एक बाबा की गाडी से एक मां और उसके बच्चे के कुचले जाने से मची भगदड में कई लोगों की मौत हो गई थी और कई लापता हो गए थे। कोरोना महामारी के बीच हरिद्वार का कुंभ सफ़ल हो यही कामना है।
(लेखक- डॉ. श्रीगोपालनारसन एडवोकेट)