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नेताजी पर ‘नेतागिरी’ अब ‘घट-घट’ में ‘राम’ नहीं..... राजनीति.....? 

नेताजी पर ‘नेतागिरी’ अब ‘घट-घट’ में ‘राम’ नहीं..... राजनीति.....? 

कई युगों से भारत के आस्थावान लोगों का यह विश्वास है कि ‘घट-घट में राम’ विराजित है और पुरी दुनिया का संचालन ईश्वर ही करते है, किंतु उसी आस्थावान भारतवर्ष के आधुनिक कर्णधार राजनेताओं ने अब भगवानों को भी दलीय राजनीति में बांट लिया है, जैसे भगवान श्रीराम पर भारतीय जनता पार्टी ने अपना अधिकार सुरक्षित कर लिया है, अभी तक धर्मो के अनुसार भगवान विभाजित थे, अब उन्हें राजनेताओं ने अपनी सुविधानुसार बांट लिया है, यह सिर्फ राजनीतिक दल या उसके आराध्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजनेताओं की तरह राजनीतिक दलों के इन आराध्यों से भी एक-दूसरे दलों के बीच वैमनस्यता बढ़ रही है, इसका सबसे ताजा उदाहरण नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सवा सौवीं जयंति पर कोलकाता में केन्द्र की भाजपा शासित सरकार का वह ‘पराक्रम’ कार्यक्रम है, जिसमें अतिथि के रूप में आमंत्रित मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष सुनने के बाद क्रोधपूर्ण मुद्रा में रूठ जाना और बिना सम्बोधन के चले जाना। ममता जी को भगवान राम के उद्घोष में अपनी बैईज्जती नजर आई  और प्रधानमंत्री सहित सभी उपस्थितों को उन्होंने खरीखोटी सुना दी। 
सबसे बड़े खेद की बात तो यह है कि अब हमारे उन सर्वस्व लुटाने वाले देशभक्त नेताओं के नाम पर ओछी राजनीति की जा रही है, जिनके कारण आज देश आजाद है, अब हमारे देश के अग्रज नेता गांधी, नेहरू, सुभाष, सरदार पटेल को भी राजनीति की तुच्छ सोच ने बांट कर रख दिया है, जबकि इन नेताओं के सिद्धांतों और उनकी सोच में ऐसा कुछ नहीं था, सच पूछों तो आजकल राजनीति का सबसे बड़ा लक्ष्य सत्ता हो गया है और सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए वोट की सीढ़ी चढ़कर जाना पड़ता है इसलिए उस सीढ़ी के लिए राजनीतिक दलों में छीना-झपटी में नेताओं व देवताओं का बंटवारा हो रहा है, जो देश के लिए काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। 
.....फिर आजकल के नेताओं की सोच और जानकारी का स्तर भी इतनी नीची पायदान पर पहुंच चुका है कि उसे सुनकर देश का प्रबुक्त नागरिक अपना सिर पीटने को मजबूर हो जाता है इसका भी ताजा उदाहरण कोलकाता का ही वहां की मुख्यमंत्री का वह ताजा भाषण है, जिसमें उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार राष्ट्रीय राजधानियों की स्थापना की बात कही है, वे कोलकाता को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित करवाना चाहती है, यहां विचारणीय तथ्य यही है कि यही क्या कम है कि ममता जी ने प्रत्येक राजधानी क्षेत्र के एक प्रधानमंत्री की मांग नहीं की और स्वयं को अपने क्षेत्र का प्रधानमंत्री घोषित नहीं किया? अब क्या हमारे आधुनिक देश के कर्णधारों की ऐसी सोच ‘काॅमेडी’ की श्रेणी में नहीं आती है? 
हमारे इकहत्तरवें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर आज सोच व चिंतन का गंभीर विषय तो यही होना चाहिए कि हमारे ये आधुनिक कर्णधार हमारे देश को कौन-सी दिशा में लेजाकर किस गहरी खाई में धकेलना चाहते है? यदि नेताओं की इस घटिया सोच का कोई ईलाज या विकल्प नहीं खोजा गया तो फिर इस देश की आजादी, लोकतंत्र या गणतंत्र का क्या हश्र होगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता? अरे, कम से कम किसी शख्सियत के व्यक्तित्व की चिंता नहीं तो कम से कम उसके संवैधानिक पद की गरिमा का तो हर किसी के द्वारा सम्मान किया ही जाना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि हर वर्ष सादगी से मनाया जाने वादा नेताजी की जयंति को इस चुनाव वर्ष में ‘पराक्रम’ के साथ मनाया गया, यह भी राजनीतिक चाल ही थी, किंतु इसका जवाब विरोधी पार्टी द्वारा उसी के लहजे में भी तो दिया जा सकता था? पर किया क्या जाएं, भांग तो राजनीति के पूरे कुएं में भी धुली हुई है?
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता )

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