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(चिंतन-मनन) जीना और मरना

(चिंतन-मनन) जीना और मरना


जिस भांति हम जीते हैं, उसे जीवन नाममात्र को ही कहा जा सकता है। हमे न जीवन का पता है; न जीवन के रहस्य का द्वार खुलता है। न जीवन के आनंद की वष्रा होती है; न हम यह जान पाते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं, किसलिए जी रहे हैं? हमारा होना करीब-करीब न होने के बराबर होता है। किसी भांति अस्तित्व ढो लेते हैं, जीवित रहते हुए मुर्दे की भांति। लेकिन ऐसा भी होता है कि मरते क्षण में भी कोई जीवंत होता है कि उसकी मृत्यु को भी हम मृत्यु नहीं कहते। बुद्ध की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कह सकते हैं और अपने जीवन को हम जीवन नहीं कह पाते हैं। कृष्ण की मृत्यु को मृत्यु कहना भूल होगी। उनकी मृत्यु को हम मुक्ति कहते हैं। उनकी मृत्यु को हम जीवन से और महाजीवन में प्रवेश कहते हैं। उनकी मृत्यु के क्षण में कौन-सी प्रांति घटित होती है, जो हमारे जीवन के क्षण में भी घटित नहीं हो पाती। किस मार्ग से वे मरते हैं कि परम जीवन को पाते हैं।  
और किस मार्ग से हम जीते हैं कि जीवत रहते हुए भी हमें जीवन की कोई सुगंध का भी पता नहीं पड़ता है। जिसे हम शरीर कहें, वह हमारे लिए कब्र से ज्यादा नहीं है, एक चलती-फिरती कब्र। और यह लंबा विस्तार जन्म से लेकर मृत्यु तक, बस आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाने का ही काम करता है। ऐसे रोज-रोज और मौत के करीब पहुंचते हैं। हमारी सारी यात्रा मरघट पर पूरी हो जाती है। जीने का सब कुछ निर्भर है जीने के ढंग पर और मरने का भी सब कुछ निर्भर है मरने के ढंग पर। हमें जीने का ढंग भी नहीं आता। बुद्ध जैसे व्यक्ति को मरने का ढंग भी आता है। कृष्ण ने कहा है, ।।हे अजरुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए योगीजन, पीछे न आने वाली गति और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को, उस मार्ग को मैं तुमसे कहूंगा। इसमें दो-तीन बातें समझ लेनी चाहिए। जिस काल में, जिस क्षण में। बड़ा मूल्य है क्षण का, बड़ा मूल्य है काल का। उस क्षण का जिसमें कोई व्यक्ति मृत्यु को उपलब्ध होता है।  
हमारे भीतर भी एक घड़ी है और भीतर भी क्षणों का हिसाब है। भीतरी घड़ी के उस क्षण में-बहुत कुछ निर्भर होता है। क्योंकि जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है। मृत्यु भी बहुत कारणों से सुनिश्चित है और मृत्यु देखकर कहा जा सकता है कि व्यक्ति कैसे जिया। यदि भीतर की घड़ी, भीतर का समय विचार से भरा हो, वासना से भरा हो, कामना से भरा हो, तो व्यक्ति मरकर वापस लौट आता है। लेकिन भीतर का समय शुद्ध हो, कोई कामना नहीं, तृष्णा का सूत्र नहीं, शुद्ध क्षण हो तो उस क्षण में मरा हुआ व्यक्ति संसार में लौटकर नहीं आता। 
 

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