
यह भौतिक जगत प्रकृति के गुणों के चमत्कार के अन्तर्गत कार्य कर रहा है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी चेतना कृष्ण कार्य में लगाए। कृष्णकार्य भक्तियोग के नाम से विख्यात हैं। इसमें न केवल कृष्ण अपितु उनके विभिन्न पूर्णाश भी सम्मिलित हैं- यथा राम तथा नारायण। कृष्ण के असंख्य अंश हैं, जो उनके किसी भी रूप या पूर्णाश की सेवा में प्रवृत्त होता है, उसे दिव्य पद पर स्थित समझना चाहिए। कृष्ण के सारे रूप पूर्णतया दिव्य और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। ईश्वर के ऐसे रूप सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ होते हैं और उनमें समस्त दिव्यगुण पाये जाते हैं। अत: यदि कोई कृष्ण या उनके पूर्णाशों की सेवा में दृढ़संकल्प के साथ प्रवृत्त हो तो (यद्यपि प्रकृति के गुण जीत पाना कठिन है) वह उन्हें सरलता से जीत सकता है।
कृष्ण की शरण ग्रहण करने पर प्रकृति के गुणों का प्रभाव लांघा जा सकता है। कृष्णभावनामृत या कृष्ण-भक्ति में होने का अर्थ है, कृष्ण के साथ समानता प्राप्त करना। भगवान कहते हैं कि उनकी प्रकृति सच्चिदानन्द स्वरूप है और सारे जीव परम के अंश हैं। जीव अपनी आध्यात्मिक स्थिति में स्वर्ण के समान या कृष्ण के समान गुण वाला होता है। किन्तु व्यष्टित्व का अन्तर बना रहता है अन्यथा भक्तियोग का प्रश्न ही नहीं उठता।
भक्तियोग का अर्थ है कि भगवान और भक्त के बीच प्रेम का आदान-प्रदान चलता रहता है। अतएव भगवान में और भक्त में दो व्यक्तियों का व्यष्टित्व वर्तमान रहता है, अन्यथा भक्तियोग का कोई अर्थ नहीं है। यदि कोई भगवान जैसे दिव्य स्तर पर स्थित नहीं है, तो वह भगवान की सेवा नहीं कर सकता है। उदाहरणार्थ, राजा का निजी सहायक बनने के लिए कुछ योग्यताएं आवश्यक हैं। इस तरह भगवत्सेवा के लिए योग्यता है कि ब्रह्म बन भौतिक कल्मष से मुक्त हुआ जाय। कहा गया है ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति। अर्थात मनुष्य को ब्रह्म से एकाकार हो जाना चाहिए। लेकिन ब्रह्मत्व पाने पर मनुष्य व्यष्टि आत्मा के रूप में अपने शात ब्रह्म-स्वरूप को खोता नहीं है।