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लक्ष्मीजी को कैसे करें प्रसन्न

लक्ष्मीजी को कैसे करें प्रसन्न

मानव जीवन में लक्ष्मी का अत्यधिक महत्व है। लक्ष्मी सात्विकी देवी है। लक्ष्मी स्वच्छता प्रिय हैं परन्तु घर की साफ-सफाई के साथ-साथ ही विचारों की निर्मलता तथा पारदर्शिता भी उतनी ही आवश्यक है। तन की निर्मलता के साथ मन की निर्मलता भी सर्वोपरि है। लक्ष्मी के अनेक नाम हैं। इसे चंचला भी कहते हैं। स्वभावगत विशेषता इसकी यह है कि दीर्घावधि तक यह एक स्थान पर नहीं रह सकती है, इसलिए कहा जाता है कि-
चार दिनों की चाँदनी फेर अँधेरी रात।
धन की विपुलता में व्यक्ति को मद-मस्त नहीं होना चाहिए। सम्पत्ति का उपयोग सोच समझकर, मितव्ययिता के साथ करना चाहिए। मानव अपनी आत्मा को प्रकाशवान बनाएगा, मन, वचन तथा कर्म में पवित्रता एवं एकरूपता होने पर व्यक्ति में दैवीशक्ति का संचरण होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहां कुमति तहं विपति निदाना।
मानव जीवन में संतोष होना अति आवश्यक है। खर्च पर नियंत्रण और संतुष्टि का भाव जीवन को सुखमय बनाता है। आमदनी में से एक निश्चित धनराशि को बचाकर रखना एक सद्गुण है। जीवन के उतार-चढ़ाव में ये बचत हमारे लिए सहायक सिद्ध होती है। महाभारत के अनुशासन पर्व के ग्यारहवें अध्याय में कहा है-
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे
दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे
जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्त्वे।।
अर्थात् लक्ष्मीजी का कथन है कि मैं निर्भीक, चतुर, कर्म में रत, क्रोध न करने वाले, उपकारों को न भूलने वाले, जितेन्द्रिय और बलशाली के पास रहती है।
एक बार लक्ष्मीजी गौओं के पास गई और कहा कि मैं आपके शरीर में निवास करना चाहती हूँ। मेरा आशीर्वाद प्राप्त कर आप सब श्रीसम्पन्न हो जाओगी। गौओं ने कहा कि हे देवि! आप स्वभाव से चंचल हो, इसलिए स्थायी रूप से एक स्थान पर निवास नहीं कर सकती हो। आप हमसे पूछने आईं, इसलिए हम कृतार्थ हैं। लक्ष्मीजी बोलीं मैं दुर्लभ हूँ। मुझे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति कठिन परिश्रम करता है। मैं तो स्वयं तुम्हारे पास आई हूँ। तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करती हो। इसीलिए विद्वानों ने कहा है-
'बिना बुलाए किसी के पास जाने से अनादर ही होता है। देवता, दानव गन्धर्व, नाग, किन्नर, पिशाच सभी उग्र तपस्या करके मुझे प्राप्त करते हैं। तुम सौभाग्यशाली हो कि मैं स्वयं तुम्हारे पास आई हूँ। त्रिलोक में भी कोई मेरा अपमान नहीं करता है। यदि तुम मेरा अपमान करोगी तो सम्पूर्ण संसार मेरा अपमान करेगा। तुम सभी को शरण देती हो। मुझे भी अपना लो। गौओं ने कहा कि हमारी दो वस्तुएँ अत्यंत पवित्र हैं- १. गोबर, २. गौमूत्र। अत: आप हमारी इन दोनों वस्तुओं में निवास करो। तभी से समुद्र मंथन से निकलने वाली लक्ष्मीजी को गाय की ये दोनों वस्तुएँ अत्यंत प्रिय हैं। सनातन धर्म में सभी घरों में इन्हें अत्यधिक पवित्र माना जाता है।
संक्षिप्त महाभारत के शान्ति तथा अनुशासन पर्व में कहा गया है कि धर्म, अर्थ तथा काम भी लक्ष्मी का सहयोग होने पर सुख देते हैं। धर्म के रहस्य का उद्घाटन करते हुए लक्ष्मी ने बतलाया कि किन घरों में उनका निवास नहीं रहता है-
प्रकीर्ण भाण्डामनवेक्ष्यकारिणीं
सदा च भर्तु: प्रतिकूलवादिनीम्।
परस्य वेश्माभिरतामलज्जा
मेवंविधां तां परिवर्जयामि।।
पापामचोक्षामवलेहिनीं च
व्यपेतधैर्यां कलहप्रियां च।
निद्राभिभूतां सततं शयाना-
मेवं विधां तां परिवर्जयामि।।
'अर्थात् उन स्त्रियों के निकट मैं नहीं रहती, जो घर के सामान-बर्तन, वस्त्र आदि इधर-उधर फेंक देती हैं और सोच समझकर काम नहीं करतीं। हमेशा पति के विरोध में रहती हैं। दूसरे के घर जाने में ज्यादा रुचि लेती हैं। जो चटोरी, निर्लज्ज, अधीर, झगड़ालू, अधिक सोने वाली आदि स्त्रियों के पास मैं नहीं रहती हूँ।Ó इसके पश्चात लक्ष्मीजी कहती हैं कि मैं ऐसे पुरुषों के पास भी नहीं रहती हूँ जो कठोर वचन बोलने वाले, जरा-जरा सी बात पर क्रोधित होने वाले, नास्तिक, अकर्मण्य, अल्प धैर्य वाले, अपने मनोरथ को छुपाने वाले होते हैं।
घरों में जगह-जगह केश (बाल) का मिलना, मकड़ी के जाले, कूड़ा कर्कट का कोने में पड़ा रहना, गन्दे शौचालय, स्नानघर, नलों में लीकेज, गन्दा रसोईघर, अस्त-व्यस्त गृहिणी, गन्दे तथा अनुशासनहीन बच्चे, इधर-उधर फैले जूते चप्पल, बुहारने वाली इधर-उधर पड़ी झाडू परिवार में असंतोष, छोटी-छोटी बातों पर कलहप्रिय, कामचोर, लोभी, क्रोधी, विघ्रसंतोषी, अव्यवस्थित घर आदि वातावरण में लक्ष्मीजी का निवास नहीं होता है।
धर्म के रहस्य का उद्घाटन करते हुए लक्ष्मीजी कहती हैं कि मेरा निवास उन्हीं घरों में रहता है जहाँ टूटे-फूटे बर्तन न हो, फटे पुराने वस्त्रों का ढेर न लगा हो, मैले कुचेले बदबूदार वस्त्र न हों, स्त्रियों का तिरस्कार न होता हो, हवन, पूजन, श्राद्ध आदि पुण्य कार्य विधिविधान से होते हों! परिवार के सदस्य प्रेमपूर्वक रहते हों। कुत्ता तथा मुर्गा पालने से देवतागण हविष्य ग्रहण नहीं करते हैं। अधिक बड़ा वृक्ष भी घर में न हो क्योंकि उसके अन्दर साँप, बिच्छू आदि का निवास हो जाता है। वृद्धजनों का जहाँ सम्मान होता है। यही लक्ष्मीजी के निवास के लिए उपयुक्त हैं। भगवान का प्रतिदिन दोनों समय पूजन, आरती, सायंकाल तुलसी को दीपक आदि धार्मिक कार्य होते हों, वहाँ लक्ष्मीजी का निवास होता है।
वास्तु-शास्त्र के अनुसार घर में सफाई के काम में आने वाली झाडू भी महालक्ष्मी का ही न प्रतीक होती है। सनातन परम्पराओं को मानने वाले घरों में आज भी झाडू खरीदने के पश्चात् उसका पूजन किया जाता है। पुरानी टूटी हुई झाड़ू घर में नहीं रखना चाहिए। इससे घरों में सदस्यों को कष्ट होता है। प्राय: सभी महिलाएँ इस बात से परिचित हैं कि झाडू ऐसे स्थान पर रखी जाएं जहाँ से वह आगन्तुकों को दिखाई न दे। लक्ष्मीजी का प्रतीक होने से इसे पैर नहीं लगाना चाहिए। उलाघना भी नहीं चाहिए। हमारी संस्कृति में माताएँ अपनी संतानों को इस बात की जानकारी बाल्यावस्था से ही देती आ रही है। ऐसा करने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है इस बात से सभी परिचित हैं। दीपावली तथा धनतेरस पर झाडू क्रय की जाती है और पूजन में इनका प्रयोग किया जाता है। झाडू कई प्रकार की होती, इस बात से हम सभी परिचित हैं- फूल झाडू, खजूर की झाडू, बांस की सींक की झाडू, प्लास्टिक झाडू, जाले निकालने की लम्बी झाडू आदि। झाडू को टाँग कर खड़ी नहीं रखना चाहिए। वेक्यूम क्लीनर आधुनिक युग में झाडू का विकल्प है, फिर भी कुछ आवश्यक कार्यों के लिए तो हमें प्लास्टिक ब्रश तथा झाडू का उपयोग अनिवार्य रूप से करना पड़ता है।
ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में रहने वाले विश्व के प्रसिद्ध अमीरों की जीवनी का अध्ययन करने से हमें ज्ञात होता है वे भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में सामान्य व्यक्ति ही थे। उन्होंने कमर तोड़ परिश्रम किया। आत्म नियंत्रण, आत्मानुशासन, मितव्ययता, त्वरित बुद्धि, समय की पाबन्दी आदि अनेक गुणों को अपना कर आज विश्व में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित किया है। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रतन जी टाटा, सुधामूर्ति, नारायण मूर्ति, अम्बानी परिवार, अडानी बन्धु, बिड़ला बन्धु, उदयकोटक, लक्ष्मी मित्तल, सावित्री जिन्दाल आदि हैं। ऐसा कोई जादू का दीपक नहीं है जो व्यक्ति को लक्ष्मीपति बनाता है। साहस, सहनशीलता, संलग्रता, संयम, सहयोग, स्वावलम्बन तथा स्वानुशासन में ऐसे गुण हैं जो व्यक्ति को उत्तरोत्तर प्रगति की ओर ले जाने में सहायक सिद्ध होते हैं। हाथ का अग्र भाग तथा मूल भाग में स्थित ब्रह्म ही व्यक्ति को शिखर पर पहुँचाता है-
करग्रे वसते लक्ष्मी कर मध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्म प्रभाते कर दर्शनम्।।
हाथ के मध्य में स्थित सरस्वती व्यक्ति की उन्नति की राह को सरल बना देती हे। निर्मल मन, शुद्ध भावना, पवित्र विचार, सद्व्यवहार, निष्कपट व्यक्ति के यहाँ लक्ष्मीजी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करती है-
भवानि त्वं महालक्ष्मी: सर्वकामप्रदायिनी।
सुपूजिता प्रसन्ना स्यान्महालक्ष्मि! नमोऽस्तुते।।
नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रिये।
या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा में भूयात् त्वदर्चनात्।।
संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध रचनाकार बाणभट्ट की रचना कादम्बरी एक उपदेशात्मक ग्रन्थ है। इसमें चन्द्रापीड़ नामक राजकुमार को शुकनास नामक मंत्री राज्याभिषेक के पूर्व उपदेश देता है। मंत्री अत्यधिक अनुभवी है। वह चन्द्रापीड़ को राज्याभिषेक के पूर्व उपदेश देता है। यह उपदेश वात्सल्य भाव से सरोबार है और प्रत्येक युवक के लिए उपदेशात्मक भी है। वे कहते हैं कि हे राजकुमार आप राज्याभिषेक के बाद आपके पिताश्री द्वारा जीती गई सप्तद्वीपों वाली पृथ्वी को आप आपके कौशल से, प्रभुत्व से सँभालकर रखें। यह लक्ष्मी स्वरूप है।
लक्ष्मी मायावी है। भगवान विष्णु के पास रहते हुए इसका निवास सामान्यत: अज्ञानियों के पास रहता है। सरस्वती के उपासकों के पास उसका निवास नहीं है। इसका चरित्र विरोधाभाव से युक्त है। लक्ष्मी का निवास जल में है किन्तु तृष्णा बढ़ाती है। अमृत की सहोदरा होकर भी इसका फल कटु है। इसकी चकाचौंध काजल रूपी कर्म का प्रसार करती है।
समुद्र मंथन से निकाले गए चौदह रत्नों में लक्ष्मी ने प्रत्येक में से कुछ न कुछ ग्रहण किया है उदाहरणार्थ- पारिजात पुष्प से रक्तवर्ण, उच्चैश्रवा घोड़े से चंचलता, कौस्तुभ मणि से कठोरता, कालकूट जहर से मोहित करने की शक्ति तथा वारुणी से उसकी मदान्धता ग्रहण की है। इस प्रकार लक्ष्मी ने सभी रत्नों से कुछ न कुछ ग्रहण किया है-
क्षीरसागरात् पारिजात पल्लवेभ्योरागम्
उच्चै श्रवश्चंचलताम्, कालकूटान्मोहनशक्तिं
मदिरायामदम् कौस्तुभमर्णैनैष्ठुर्यम् इत्यादय:।
कादम्बरी के रचनाकार ने हमें लक्ष्मी की चंचलता के लिए सचेत किया है। नई पीढ़ी के युवक अपने बाहुबल, बुद्धिकौशल, सूझबूझ तथा निर्णय क्षमता के आधार पर लक्ष्मी को हमेशा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें। श्रीसूक्त का वाचन करने से भी लक्ष्मीजी प्रसन्न होती है।
 (लेखिका  -  डॉ. शारदा मेहता )
 

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