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(चिंतन-मनन) विराट सत्ता की झांकी

(चिंतन-मनन) विराट सत्ता की झांकी

ईश्वर चेतना निराकार है। साकार तो उसका कलेवर भर दिखता है। ईश्वर का दृश्य स्वरूप यह विराट ब्रह्माण्ड है।  अर्जुन, यशोदा, कौशल्या आदि का मन ईश्वर दर्शन के लिए व्याकुल हुआ तो उन्हें इसी रूप में दिव्य दर्शन कराये गये। इसके लिए दिव्य नेत्र दिये गये। कारण, स्थूल दृष्टि से विराट विश्व को नहीं देखा जा सकता। जिन्हें पूर्व कथानकों के अनुरूप दर्शन ही भक्तिि भावना का सफलता का आधार दिखाई पड़ता है, उनके लिए प्रतिमा-प्रतीकों का निर्धारण किया गया है। व्यापक चेतना की सत्ता तो सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है। मात्र शरीरधारी आकार ही चाहिए तो फिर भगवान की आकृति किसी भी प्राणी के रूप में हो सकती है पर यह परिकल्पना रास नहीं आती और मनुष्य शरीर का अभ्यास होने के कारण अधिक मनभावन प्रतीत होता है। इसलिए प्रतिमाओं में मनुष्याकृति को ही प्रमुखता दी गयी है।  
यों तत्त्वदर्शियों ने मछली, वाराह, नृसिंह आदि को भी भगवान के अवतार बताकर प्राणी मात्र में दिव्य सत्ता का दर्शन करने का संकेत किया है, पर वह प्रतीक सब में प्रतिष्ठत न हो सका। चित्रों, प्रतिमाओं में देवी-देवताओं के वाहन पशु-पक्षी हैं पर उन्हें सेवक भर की मान्यता मिल सकी।  
यद्यपि निर्धारण कर्ताओं का अभिप्राय यही था कि प्राणी मात्र में ईश्वर की झांकी की जाए और उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाए जैसा दिव्य संरचना के हर घटक के साथ किया जाना उचित है। शिव का नंदी, सरस्वती का हंस, लक्ष्मी का हाथी, दुर्गा का सिंह प्राय: चित्रण में आते हैं।  
जब उच्च स्तरीय संवेदना उभरती है, तो अपने ही अंतराल से भगवान का आंशिक अवतरण हुआ समझा जा सकता है। जब वे सद्भावनाएं क्रिया रूप में परिणत होने के लिए मचल पड़ें और लोभ, मोह के बंधनों से बंधने में इंकार करने लगें, तो समझना चाहिए कि दिव्य अनुकंपा का आवेश आत्म चेतना पर अपना अनुग्रह बरसाने लगा है।  
शक्तिियां सदा निराकार होती हैं। पवन का आकार कहां है? पर जब वह अंधड़ के साथ जुड़ जाता है, तो आंधी ही वायु रूप में दर्शन देती है। शब्द निराकार है पर जब जिह्वा, होंठ, कंठ आदि के माध्यम से वाणी मुखर होती है, तो उन अंगों का परिचालन वाणी का साकार स्वरूप दिखाई पड़ता है।  
वाद्य यंत्र भी ध्वनि के उद्गम के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इसीलिए उच्च उद्देश्यों में निरत महामानवों को बहुधा अवतार की, भगवान की संज्ञा दी जाने लगती है। श्रेष्ठ भाव संवेदनाओं की तरह आदर्शवादी क्रियाकलाप दैवी अनुग्रह से गतिशील माने जाने लगते हैं।  
 

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