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(आरोग्यवर्धक-- त्यौहार ) पर्व एवं स्वास्थ्य --आयुर्वेद मतानुसार 

(आरोग्यवर्धक-- त्यौहार ) पर्व एवं स्वास्थ्य --आयुर्वेद मतानुसार 

भारतीय संस्कृति की यह विशेषता हैं कि उनके अंतर्गत होने वाले किसी भी व्यवहार का सामाजिक ,प्राकृतिक ,तार्किक व भावनात्मक आधार तो होता  ही हैं ,वैज्ञानिक आधार भी प्रमाणित होता हैं .पौराणिक एवं ऐतिहासिक काल से प्रचलित और त्यौहार सामाजिक समरसता सौहार्द्य एवं उल्लास का सन्देश देते रहे हैं .प्रकृति में होने वाले विविध परिवर्तनों को आत्मसात करते हुए तदनुरूप अपनी व्यवहार चर्या में क्रमिक -परिवर्तन का अवसर भारतीय त्यौहार पर प्राप्त होता हैं .
                   भारतीय त्योहारों कि एक विशेषता यह भी हैं कि भारतीय संवतसर ,जो खगोल विज्ञान पर आधरित हैं ,खगोलीय -चक्र के अनुसार प्रकृति -गत परिवर्तनों के सोपान होते हैं .वर्ष भर में सूर्य -चंद्र कि गतियों के कारण प्रकृति में होने वाले बदलाव का प्रभाव से तन -मन को बचाने के लिए आयुर्वेद में ऋतुओं का और उनकी चर्या का निर्धारण किया गया हैं .इस तरह कुछ त्यौहार आनंद ,उल्लास और समरसता को बढ़ाने के कारण सामाजिक -स्वास्थ्य के पोषक होते हैं ,जबकि कुछ व्यक्तिगत -स्वास्थ्य के पोषण के लिए व्यक्तिगत जीवन चर्या में बदलाव का निर्देश देते हैं .
              देश भर में एक जन -एक संस्कृति कि झलक भी इन त्यौहार पर देखने को मिलती हैं .देश के अलग अला क्षेत्रों में अलग -अलग नामों में किन्तु एक  ही समय में मनाये जाने वाले त्यौहार एक सन्देश देते हैं ,जबकि मनाने का तरीका क्षेत्रीय आधार पर अलग अलग हैं .मकर संक्रांति ,वैसाखी मकर- विलक्कू आदि इसके उदहारण हैं .
       गणगौर --
         चैत्र मॉस के कृष्ण पक्ष कि प्रतिपदा से १६ दिन तक अर्थात चैत्र शुक्ल द्वितीया तक गांगौर पूजा होती हैं .
            होली के दूसरे इन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल द्वितीया तक  कुँवारी कनिएँ ,सौभाग्यवती स्त्रियां माँ पार्वती(शक्ति ) एवं शिव (ईश्वर .गणगौर ) कि पूजा प्रतिदिन करती हैं ,इस हेतु कनेर ,जपा (गुड़हल ) ,गुलाब ,दूर्वा आदि से १६ बार पूजा करती हैं ,महिलाएं मंगल गीत जाती हुई गाँव /नगर के उद्यानों में जाती हैं एवं वहां से जल के कलश एवं साथ में पंचपल्लव एवं ऋतू -पुष्प --फल आदि लाकर ईसर  व गणगौर कि पूजा करती हैं और अंतिम दिन से एक दिन पूर्व सिंजारा मनाया जाता हैं जिसमे हाथ पैरों में मेहंदी लगाती हैं एवं पौष्टिक मिष्ठान यथा --घेवर ,चूरमा खीर आदि का सेवन का सेवन करती हिन् .दूसरे दिन सौलह श्रृंगार कर महिलाएं पूजा करती हैं ,मेला भरता हैं ,जिसमे सभी उत्साह पूर्वक भाग  लेते हैं .
         स्त्रियां शक्तिस्वरूपा होती हैं ,इस सृष्टि को चलाने के लिए उन्हें अधिक शक्तिमान होने कि आवश्यकता हैं ,अतः महिलायें बचपन  से ही प्रतिवर्ष १६ दिन तक तन मन से उल्लास के साथ यह पूजन कर शक्ति का संचय करती हैं और अच्छे वर कि कामना करती हैं जिससे उनकी संतति तन -मन से पुष्ट एवं बुद्धिमान हो .
             इस अवसर पर बनाये जाने वाले विशेष पकवान घेवर ,चूरमा ,खीर आदि पौष्टिक होते हैं ,प्रत्येक महिला को इस दिन १६ गुणे खाने होते हैं (गुणे एक विशेष प्रकार कि मिठाई हैं जो गेंहू के आटे /मैदा से गुड़ /शक्कर इलायची आदि मिलाकार गोल आकृति के बना घी में तला जाता हैं ,ये विशेष पुष्टिक होते हैं किन्तु  मेड कि वृद्धि नहीं करते हैं .
          अतः यह त्यौहार महिलाओं को इस दिन से पौष्टिक आहार लेने को निर्देशित करता क्योकि इसके बाद ग्रीष्म ऋतू का आगमन होता हैं और बल का क्षय प्रारम्भ  हो जाता हैं .
            नवरात्र
          वर्ष में दो प्रकट एवं दो गुप्त ,इस तरह चार नवरात्र आते हैं .चैत्र ,आश्विन ,आषाढ़ एवं माघ मॉस के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक का समय नवरात्र कहलाता हैं .
            नवरात्र  के समय शक्ति कि उपासना कि जाती हैं ,इस हेतु अपने सामर्थ्यानुसार उपवास ,व्रत ,निराहार ,फलाहार आदि करते हुए अपने अर्ध्य अथवा शक्ति कि पूजा - अर्चना -उपासना करते हैं तथा नवमी कि धूमधाम के साथ मानलोपचार से नवरात्र का समापन किया जाता हैं .
               चारोँ नवरात्र ऋतू संधिकाल हैं ,इनमे रोगों का संक्रमण विशेष रूप से होता हैं ,रोगों का प्रमुख कारण आमोतपत्ति ,अग्निमांघ ,अल्पव्याधिक्षमत्व (शरीरिक एवं मानसिक बल का अल्प होना ) एवं काल का व्यतिक्रम ,,अहितकर आहार-विहार ,असतंयेन्द्रीन्द्रयार्थ  संयोग और प्रज्ञापराध हैं .
                इनके निवारणार्थ अग्नि को बढ़ाने,आम का पाचन करने ,अहितकर आहार -विहार से बचने के लिए उपवास ,व्रत करिणमे केवल लघु आहार या फलाहार अदि सेवन करते हैं एवं मानसिक बल को बढ़ाने के लिए शक्ति अथवा इष्ट कि उपासना करते हैं ,इस तरह प्रत्येक ऋतुसंधिकाल में नवरात्र कर व्याधिक्षमत्व को बढ़ा सकते हैं इस अवसर पर नवरात्र केअंतिम दिनों में षष्ठी पूजा ,सप्तमी पूजा अष्टमी पूजा नवमी पूजा एवं दशहरा के विशेष नैवैद्य बनाते हैं एवं पूजा की जाती हैं षष्ठी पूजा के दिन लप्सीका,सामान्य सप्तमी को घृत एवं चांवल युक्त लप्सीका अष्ठमी नवमी को लप्सीका ,खीर एवं अन्य पौष्टिक खाद्य पदार्थों का सेवन करते हैं ,जो इस दिन से शरीरिक बल बढ़ाने हेतु पौष्टिक पदार्थं का सेवन करते हैं .
               तीज
         श्रावण  माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया के त्यौहार के रूप में मनाया जाता हैं  
        श्रावण में स्त्रियां द्वारा शिव -पार्वती की पूजा की जाती हैं एवं स्त्रियां तीज के एक दिन पूर्व सिंजारा मनाती हैं .इस दिन मेहँदी आदि लगाना एवं १६ श्रृंगार कर शिवशक्ति की पूजा करती हैं सावन में सभी ओर हरियाली होती हैं इस हेतु उद्यानों य वनों में जाकर झूले झूलते हैं ,खीर ,घेवर ,पूए आदि का भोजन करते हैं .
         ग्रीष्म ऋतू की समाप्ति वर्षा ऋतू के आगमन का स्वागत एवं शक्ति पूजा कर ,शक्ति वृद्धि करना ,सोलह श्रृंगार कर काम को उतपन्न करना एवं सृष्टि को चलाना .ग्रीष्म से संचित  वात का शमन खीर घेवर आदि स्निघ्ध एवं गुरु पदार्थों के मात्रापूर्वक सेवन करते हुए बलाधान किया जाता हैं .
            जन्माष्टमी
        जन्माष्टमी प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा अष्टमी . को मनाई जाती हैं .
        इस दिन भगवान श्री कृष्ण का जन्महुआ था  ,इसलिए उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता हैं ,इसी दिन सभी लोग उपवास रखते हैं .मंदिरों ,घरों को आम ,वट ,पीपल ,अशोक ,नीम, केले आदि के पत्तो से वंदनवार बांधते हैं .
                 रात्रि १२ बजे भगवन श्री कृष्णा के जन्म के पश्चात भगवान् का अभिषेक होता हैं एवं इसके बाद सभी लोग भगवान् को अर्पित किये गए पंचजीरी एवं पंचामृत का सेवन के साथ अपना उपवाद खोलते हैं ,सभी  मंदिर और घरों में भक्ति का माहौल रहता हैं .संकीर्तन ,भजन आदि के कार्यक्रम होते हैं .दूसरे दिन नंदोत्सव पर उपहारों की वर्षा होती हैं एवं शोभा यात्रा निकाली जाती हैं .
              वर्षाकाल में वात प्रकोप होता हैं .विभिन्न वात विकार उतपन्न होते हैं .वर्षाकाल में इस तरह के उत्सव मनाने से मन उल्लसित रहता हैं ,चीन ,शोक भय से वायु की वृद्धि होती हैं एवं हर्ष ,उल्लास ,प्रसन्नता ,उत्साह से वायु का नाश होता हैं अतः ऐसे त्यौहार मनाने से शारीरिक एवं मानसिक  प्रसन्नता प्राप्त होती हैं .
             इस अवसर पर बनायीं जाने वालो पंचजीरी हिस्का अपभृंश पंजीरी रह गई हैं ,वात शमन करने वाली हैं इसमें धनियां ,अजवाइन ,सौंफ ,जीरा और सौया  बराबर मात्रा में लिया जाता हैं इनको पीसकर चूर्ण बना इसमें शक्कर का बुरा व शुद्ध घी मिलते हैं जो वात का शमन एवं अनुलोमन करने वाला होता हैं इसी के साथ पंचामृत (दूध + दही +घी + शहद +शक्कर ) अत्यंत पौष्टिक एवं वात नाशक होता हैं .
        इस अवसर पर पायी जाने वाली नीम एवं पंच -पल्ल्व की बंदनवार भी जीवाणु ंशक होती हैं
         इस त्यौहार के बाद दस दिन तक पंचजीरी चूर्ण २०ग्राम की मात्रा में तथा पंचामृत का सेवन अवश्य करना चाहिए .
            इसके अलावा गणेश चतुर्थी ,शरद पूर्णिमा दीपावली ,मकर संक्रांति ,होली ,शीतलाष्टमी आदि त्यौहार ,त्यौहार के साथ वैज्ञानिक कारणों से लाभप्रद होते हैं .
            वर्तमान में लोग जनवरी  फरवरी के  अनुसार त्यौहार मनाते हैं .पर हमारे यहाँ की ऋतुओं के साथ मनाये जाने वाले त्यौहार मानसिक शारीरिक सामाजिक रूप से समृद्ध हैं और इनकी अपनी उपादेयता हैं .
( विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन )

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