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चुटकी बजाकर हनुमान्जी द्वारा श्रीराम की अद्भुत सेवा 

चुटकी बजाकर हनुमान्जी द्वारा श्रीराम की अद्भुत सेवा 

सच्चा भक्त अपने आराध्य की उचित सेवा तभी कर सकता है जब अपने सेव्य से सेवक का मन पूर्ण रूप से मिल गया हो। हनुमान्जी सर्वदा इस बात का पूर्ण ध्यान रखते थे कि उनके इष्ट श्रीराम को क्या अच्छा लगता है। उनकी श्रीराम के प्रति श्रद्धापूर्वक सेवा सच्ची सेवा थी। वे प्रभु श्रीराम में मन को पिरोये रखते थे। वे प्रभु श्रीराम को कुछ भी कहने का अवसर देना नहीं चाहते थे। हनुमान्जी की सेवा इतनी पूर्ण होती थी कि श्रीराम को उसमें कोई कमी नहीं लगती थी।
हनुमान्जी की सेवा का वर्णन कई पुस्तकों में पढ़ने को प्राप्त होता है, किन्तु श्रीरामचन्द्र केशव डोंगरे शास्त्री महाराज कृत तत्त्वार्थ रामायण में हनुमान्जी द्वारा श्रीरामजी की सेवा का वर्णन बड़ा रोचक, प्रेरणास्पद और सेवाभावी भक्तों के लिए अनुकरणीय है।
लक्ष्मणजी, भरतजी, शत्रुघ्नजी तथा सीताजी को यह देखकर बड़ा बुरा लगता है कि उन्हें श्रीराम की सेवा का अवसर ही प्राप्त नहीं होता है। तीनों भाई एक दिन माँ सीता के पास जाकर कहते हैं कि माताजी! आप ही कोई रास्ता निकालिए जिससे हम श्रीराम की सेवा कर सकें। माँ सीता ने कहा कि जब से हनुमान्जी आए हैं, मुझे भी प्रभु की सेवा का अवसर नहीं प्राप्त होता है। प्रभु को हनुमान्जी कुछ ज्यादा ही प्रिय है। हम सभी को हनुमान्जी को सेवा का अवसर देना ही नहीं चाहिए। चारों ने श्रीराम के पास जाकर उनकी भरपूर सेवा करने की इच्छा प्रकट की। श्रीराम जी ने कहा कि जैसी आप सबकी इच्छा। यदि आप सब सेवा करना चाहते हैं तो करें। परन्तु थोड़ी बहुत सेवा हनुमान् के लिए भी रखो। सभी कहने लगे कि वानरों ने अभी तक आपकी बहुत सेवा की है। क्या आप लोग हनुमान् के केवल वानर ही समझते हो-
''रुप मात्रं तु वानरम्।ÓÓ
श्रीराम को हनुमान्जी के लिए वानर शब्द अपमानजनक लगा। प्रभु ने सोचा कि हनुमान मेरी आत्मा है। मैं और हनुमान् पृथक्-पृथक् नहीं हैं। दूसरे दिन हनुमान्जी अपने प्रतिदिन के नियम के अनुसार सूर्योदय से पूर्व ही नित्य कर्म से निवृत्त हो अन्त:पुर से प्रभु श्रीराम की सेवा के लिए पहुँच गए। वहाँ भरतजी श्रीराम की चरण-पादुका उठाने लगे। उन्होंने हनुमान्जी से कहा कि यह कार्य प्रभु ने उन्हें ही सौंपा है। मैं ही प्रभु को चरण पादुका अर्पित करूँगा।
जब श्रीराम स्नान करने के लिए पधारे तो हनुमान्जी ने प्रभु को पीताम्बर देने का विचार कर उसे उठाने लगे तो माँ सीता बोली कि हनुमान् यह सेवा तो मुझे करनी है। ऐसे ही प्रभु सेवा का कार्य करने से लक्ष्मणजी, भरतजी और शत्रुघ्न जी ने भी हनुमान्जी को रोक दिया। वे सभी हनुमान्जी से कहते यह सेवा मेरी है यह सेवा मेरी है। हनुमान्जी परम रामभक्त थे। सेवक को सेव्य की सेवा करने से रोक दिया जाए तो उसका आहार, निद्रा आदि सभी कुछ में मन नहीं लगता है। सच्चे भक्त की पहचान भी यही है। सच्चा वैष्णव भक्त ऐसा ही होता है। हनुमान्जी को तो बस श्रीरामजी की सेवा ही करना है। वे माता सीता के पास जाकर कहने लगे कि आप लोग मुझे प्रभु सेवा का कार्य कयों नहीं दे रहे हैं? क्या मुझसे कुछ भूल हो गई है? माता सीता ने कहा कि यदि इनमें कोई सेवा कार्य छूट गया हो तो तुम कर लो। हनुमान्जी बोले कि राज दरबार की यह प्रथा होती है कि जब राजा जँभाई ले तो सेवक को राजा के मुख के सामने चुटकी बजानी चाहिए। यह कार्य मैं अपने लिए ले लेता हूँ। सनातन धर्म की परम्परा भी यही है।
हनुमान्जी अब प्रसन्न थे कि स्वामी को जब भी जँभाई आएगी मैं चुटकी बजाऊँगा। वे सिंहासनारुढ़ श्रीरामजी के मुख को ही देखते रहते। इसके पूर्व तो हनुमान्जी पूर्ण दास्य भाव से श्रीराम के चरण कमलों पर ही दृष्टि रखते थे। अब उन्होंने सोचा कि यदि चरणों की ओर दृष्टि रखूँगा तो प्रभु के जँभाई लेने पर चुटकी नहीं बजा सकूँगा। इसलिए हनुमान्जी एकटक उनके मुखारविंद को ही निहारते रहते थे। श्रीराम चलते तो हनुमान्जी उनके सम्मुख हाथ जोड़ कर आगे आगे चलते। श्रीराम जब महल में होते तो हनुमान्जी उनके मुखारविन्द के सामने खड़े होते कि कब प्रभु को जँभाई आए और वे चुटकी बजाए। प्रभु जब भोजन करने बैठे तो भी हनुमान्जी उनके सम्मुख बैठे। माँ सीता को संकोच होता था कि यहाँ भी हनुमान्जी सामने बैठे होते थे।
रात्रि में प्रभु राम अपने शयन कक्ष में सोने के लिए गए तो उनके अनन्य भक्त हनुमान्जी अपना कर्तव्य पूर्ण करने के लिए सम्मुख खड़े हो गए। सीता माता आईं तो उन्होंने रामजी से कहा कि आपका भक्त तो यहाँ भी तत्पर है। इनसे कहो कि यहाँ से जाए। श्रीराम ने कहा कि मैं उसका ऋणी हूँ। मैं उसे कुछ कह नहीं सकता। सीता माता ने स्वयं हनुमान्जी से कहा अब बहुत हुआ। तुम यहाँ से चले जाओ। हनुमान्जी बोले कि रात्रि में जँभाई आएगी तो? सीता माता ने कहा कि मैं तुम्हारे बदले चुटकी बजा दूँगी। हनुमान्जी बाहर आ गए और सोचने लगे कि सेवा बिना जीवन व्यर्थ है। हनुमान्जी ने निश्चय किया कि मैं पूरी रात्रि सीताराम, सीताराम, सीताराम कीर्तन करते हुए चुटकी बजाता रहूँगा। श्रीराम को हनुमान्जी की चिन्ता लगी। मेरा भक्त जागे और मैं सोऊँ? मैं भी सीता के साथ जागरण करूँगा। श्रीराम ने सोचा कि हनुमान् संपूर्ण रात्रि चुटकी बजाएगा इसलिए मैं पूरी रात जँभाई लेता हूँ। श्रीराम बार-बार जँभाई लेने लगे। मुँह बन्द ही नहीं हो रहा था। बाहर हनुमान्जी चुटकी बजा बजा कर कीर्तन कर रहे थे। सीताजी परेशान थीं कि आज प्रभु को खूब जँभाई आ रही है। घबराकर उन्होंने माता कौसल्या को बुलाया। उन्होंने श्रीरामजी से मुँह खुला रखने का कारण पूछा। माता को लगा कि किसी राक्षस की नजर लग गई है। मध्य रात्रि में गुरु वसिष्ठजी को बुलाया गया। उन्होंने रामजी की स्थिति परखी। उन्हें लगा कि निश्चय ही आज किसी परम भक्त का अपमान हो गया है। उन्होंने सीताजी से पूछा कि आज कोई गड़बड़ हुई क्या। सीता माता ने सेवा कार्य के बँटवारे की बात बतलाई। हनुमान्जी के लिए कोई सेवा कार्य नहीं छोड़ा, इसलिए सुबह से उदास हैं। वसिष्ठजी ने हनुमान् के बारे में पूछा कि वह कहाँ है? सीताजी ने कहा कि मैंने उन्हें चुटकी बजाने का कार्य दिया था। मैंने उसे रात में जाने का कह दिया। वसिष्ठजी ने ध्यानमग्र होकर देखा कि राजमहल के बरामद में हनुमान्जी चुटकी बजाकर कीर्तन करते हुए नाच रहे हैं। वसिष्ठजी हनुमान्जी के पास गए। उन्होंने हनुमान्जी का साष्टांग दंडवत किया। उनकी जय जयकार की और कहा कि आप चुटकी मत बजाओ। प्रभु जाग रहे हैं। जँभाई ले रहे हैं। वे अपने भक्त के आधीन हैं।
जब भक्त तन-मन से भगवान का दास हो जाता है। अतिशय भक्ति बढ़ जाती है। भक्त और भगवान में तादात्म्य स्थापित हो जाता है। दोनों एक रूप हो जाते हैं। मानव जीवन में अपने परिवार के सदस्य अपने से बड़ों के कार्यों की अवहेलना न करते हुए उनके कार्यों में सहयोग मनोयोग से करे तो प्रत्येक घर साकेत बन जाएगा, इसमें संदेह नहीं है।
श्रीरामचरितमानस में श्रीराम ने भक्त एवं दास के बारे में कहा है-
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहिं पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।
श्रीराम.च.मा. उत्तरकाण्ड ८५ (ख) ४
(लेखक-डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता  

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