
नई दिल्ली । देश का भविष्य कहे जाने वाले भारत के नैनिहाल जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। दुनिया के 180 देशों की वायु गुणवत्ता में भारत बेहद पीछे 168वें स्थान पर है। वैश्विक पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक-21 के मुताबिक, पड़ोसी मुल्क श्रीलंका (109), पाकिस्तान(142), नेपाल(145) व बांग्लादेश(162) में हवा कुछ बेहतर है। यूनीसेफ और डब्लूएचओ का कहना है कि बच्चों का शरीर पूरी तरह विकसित न हो पाने के कारण प्रदूषित कण सबसे ज्यादा उनके शरीर पर हमला करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, अगर कोई बच्चा लंबे समय तक उच्च स्तर के वायु प्रदूषण में सांस ले रहा है तो युवा होने तक उसके फेफड़े ठीक से काम करने की हालत में नहीं रह जाएंगे। कमजोर फेफड़ों के कारण किशोर या युवा होने तक इन बच्चों में अस्थमा हो सकता है। यूनीसेफ के मुताबिक, भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में हर साल पांच साल की उम्र के 1.30 लाख बच्चों की मौत खराब हवा से हो रही है। यूनीसेफ ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा कि बच्चे, वयस्कों के मुकाबले ज्यादा तेजी से सांस लेते हैं। एक वयस्क मिनट में 12 से 18 बार जबकि बच्चे 20 से 30 बार सांस लेते हैं। नवजात बच्चे तो एक मिनट में 30 से 40 बार सांस लेते हैं। जिससे उनके शरीर में प्रदूषित कण दो से तीन गुना ज्यादा पहुंचते हैं। यानी वयस्कों के मुकाबले ज्यादा बड़ा खतरा बच्चे झेल रहे। पार्टिकुलेट मैटर्स अथवा पीएम के 2.5 स्तर का मतलब बेहद छोटे (2.5 माइक्रोन) आकार के छोटे वायु प्रदूषकों से है जो सांस के जरिए बच्चों के फेफड़ों की गहराई तक पहुंच जाते हैं। फिर फेफड़ों से ये प्रदूषित कण रक्तप्रवाह में चले जाते हैं और पूरे शरीर में घूमते हैं जो कई खतरनाक बीमारियों का कारण बनते हैं। फेफड़े : विकास की उम्र में ऐसी हवा से बच्चों के फेफड़े विकसित नहीं हो पाते, फेफड़ों का कैंसर भी संभव। आंखें : बच्चों की आंखें लाल होना, सूख जाना, जलन या पानी आने के अलावा उन्हें दृष्टिदोष भी हो सकता है।