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(चिंतन-मनन) ईश्वरीय सिद्धांत 

(चिंतन-मनन) ईश्वरीय सिद्धांत 

तीन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धांत व्यक्त होते हैं- यह जो संसार है परमात्मा से व्याप्त है, उसके अतिरिक्त सब मिथ्या है, माया है, भ्रम है, स्वप्न है। मनुष्य को उसकी इच्छानुसार सृष्टि संचालन के लिए कार्य करते रहना चाहिए। मनुष्य में जो श्रेष्ठता-शक्ति या सौन्दर्य है वह उसके दैवी गुणों के विकास पर ही है। मनुष्य जीवन के सुख और उसकी शांति के लिए इन तीनों सिद्धांतों का पालन ऐसा ही पुण्य-फलदायक है। ईश्वर उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है। उपासना विकास की प्रक्रिया है।  
संकुचित को सीमारहित करना, स्वार्थ को छोड़कर परार्थ की ओर अग्रसर होना मनुष्य के आत्मतत्त्व की ओर विकास की परंपरा है। पर यह तभी संभव है जब सर्व-शक्तिमान परमात्मा की सत्ता को स्वीकार कर लें, उसकी शरणागति की प्राप्ति हो जाय। मनुष्य रहते हुए मानवता की सीमा को भेदकर उसे देवस्वरूप में विकसित कर देना ईश्वर की शक्ति का कार्य है। जान-बूझकर या अकारण परमात्मा कभी किसी को दंड नहीं देता। प्रकृति की स्वच्छंद प्रगति प्रवृत्ति में ही सबका हित नियंत्रित है। जो इन प्राकृतिक नियमों से टकराता है वह बार-बार दु:ख भोगता है और तब तक चैन नहीं पाता, जब तक वापस लौटकर फिर उस सही मार्ग पर नहीं चलने लगता है। भगवान भक्त की भावनाओं का फल तो देते हैं, किंतु उनका विधान सभी संसार के लिए एक जैसा ही है। 
भावनाशील व्यक्ति भी जब तक अपने आप की सीमाएं नहीं पार कर लेता, तब तक अटूट विश्वास, दृढ़ निश्चय रखते हुए भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता। अपने से विमुख प्राणियों को भी वे दु:ख-दंड नहीं देते। मनुष्य का विधान तो देश, काल और परिस्थितियों वश बदलता भी रहता है, किंतु उसका विधान सदैव एक जैसा ही है। भावनाशील व्यक्ति भी उसकी चाहे कितनी ही उपासना करे- सांसारिक कर्त्तव्यों की अवहेलना कर या दैवी-विधान का उल्लंघन कर कभी सुखी नहीं रह सकता। जैसा कर्म-बीज वैसा ही फल, यह उसका निश्चल नियम है। सुख और दु:ख, बंधन और मुक्ति मनुष्य के कर्मो के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। दुष्कर्मो का फल भोगने से मनुष्य बच नहीं सकता। अपनी तुच्छ सत्ता को परमात्मा की शरणागति में ले जाने से मनुष्य अनेकों कष्ट- कठिनाइयों से बच जाता है। गृहपति की अवज्ञा करके जिस तरह घर का कोई भी सदस्य सुखी नहीं रह सकता, उसी प्रकार परमात्मा का विरोधी भी कभी सुखी या संतुष्ट नहीं रह सकता।  
 

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