
मनुष्य स्वतंत्र संकल्प का स्वामी होता है। उसका संकल्प जैसा होता है, व्यक्तित्व भी वैसा ही ना\मत हो जाता है। सृजन और ध्वंस के संस्कार मनुष्य के भीतर होते हैं। उन संस्कारों को वह संकल्पशक्ति के सहारे बदल सकता है। जिस व्यक्ति में विधायक भावों की प्रचुरता होता है वह ध्वंसात्मक संस्कारों को सृजनशीलता में बदल लेता है। निषेधात्मक भाव व्यक्ति को व्रूरता, हिंसा, अनुशासनहीनता, असदाचार की दिशा में प्रेरित करते हैं। जिस राष्ट्र और समाज में हिंसा का बोलबाला होता है, रास्ते चलते बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, वह उस राष्ट्र और समाज का दुर्भाग्य होता है। उस दुर्भाग्य से बचने के लिए अहिंसक शक्तियों को जगाने और संगठित बनाने की जरूरत है। यह सच है कि हिंसक वारदातें आदमी के मन में दहशत पैदा कर देती हैं। दहशत की स्थिति में कोई भी व्यक्ति न तो सही ढंग से सोच सकता है और न ही अपनी क्षमताओं का उपयोग कर सकता है। भयोत्पादक परिस्थितियों का प्रभाव बच्चों और वृद्धों पर अधिक होता है। युवकों में भय की मात्रा कम होती है। वे जान-बूझकर खतरों को मोल लेते हैं। उनकी मानसिकता साहसिक काम करने की रहती है, किंतु इसमें भी विवेक की अपेक्षा है। विवेक के अभाव में युवक कुछ ऐसे काम कर लेता है, जो उसे उम्र से कई वर्ष आगे ढकेल कर जर्जर बना देते हैं।
देश की युवा पीढ़ी सही अर्थ में अपने यौवन को सुरक्षित रखना चाहे और कोई कीर्तिमान स्थापित करना चाहे तो उसे प्रतिस्रोतगामी बनना होगा। अनुस्रोत में बहना सरल होता है। एक पतला-सा तिनका भी प्रवाह में बह जाता है, पर विपरीत दिशा में बहने के लिए शक्ति की जरूरत होती है। भोगवादी प्रवृत्ति युग का प्रवाह है। इस प्रवाह को मोड़कर त्यागप्रधान मनोवृत्ति का निर्माण करना युवा होने की सार्थकता है। सत्य के प्रति अनास्था लोकजीवन का एक स्वर है। इस स्वर को बदल कर सत्यनिष्ठा का विकास करना युवकत्व की पहचान है।