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(चिंतन-मनन) ईश्वर का आहार है साधना

(चिंतन-मनन) ईश्वर का आहार है साधना

तुमने ईश्वर को सदैव पिता के रूप में देखा है, कहीं ऊपर स्वर्ग में। मन में बैठी इस धारणा के संग तुम ईश्वर से कुछ मांगना चाहते हो और उनसे कुछ लेना। परन्तु क्या तुम ईश्वर को एक शिशु के रूप में देख सकते हो? जब तुम ईश्वर को शिशु के रूप में देखते हो तो तुम्हारी कोई मांग नही होती। ईश्वर तो तुम्हारे अस्तित्व का अन्त:करण है। तुम ईश्वर को धारण किये हो। तुम्हें अपने गर्भ का ध्यान रखना है और इस शिशु को संसार में जन्म देना है। ईश्वर तुम्हारा शिशु है। वे तुमसे बच्चे की तरह चिपककर रहते हैं जब तक तुम वृद्ध होकर मर नहीं जाते। ईश्वर पोषण के लिए पुकारते रहते हैं। संसार में उनके पोषण के लिए उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है। साधना, सत्संग और सेवा ईश्वर के पोषक आहार हैं।  
तुम ऐसा क्यों सोचते हो कि ईश्वर एक ही हैं? ईश्वर भी अनेक क्यों नहीं हो सकते? यदि ईश्वर ने मनुष्य को अपनी छवि के अनुसार बनाया है, तो उनकी छवि क्या है? अप्रीकी, मंगोलियन, कॉकेसियन, जापानी या फिलिपिनो? मनुष्य इतने प्रकार के क्यों हैं, वस्तुओं की इतनी विविधताएं क्यों है? वृक्ष सिर्फ एक प्रकार का नहीं होता। सांप बादल, मच्छर या सब्जी सिर्फ एक प्रकार के नहीं।  कुछ भी सिर्फ एक प्रकार का नहीं है, तो फिर केवल ईश्वर को ही एक क्यों होना चाहिए?  
जिस चेतना ने इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है और जो विविधता की प्रेमी है, वह चेतना नीरस कैसे हो सकती है? ईश्वर को विविधता पसंद है, तो वे भी अवश्य ही वैविध्य होंगे। ईश्वर अनेक नाम, रूप और प्रकार से अभिव्यक्त होते हैं। कुछ विचारधारा के व्यक्ति ईश्वर को उनके विभिन्न रूपों में प्रकट होने की स्वतत्रता नहीं देते। वे उन्हें एक ही रूप-वर्दी में चाहते हैं। अवसर के अनुसार जब तुम अपने रूप को बदलते हो तो कैसे सोच सकते हो कि चेतना में कोई विविधता न हो?  
हमारे पूर्वज इस बात को समझते थे और इसीलिए उन्होंने दिव्यता के अनंत गुण व रूपों का ज्ञान कराया। चेतना नीरस और उबाऊ नहीं है। जो चेतना इस सृष्टि का आधार है, वह गतिमान और परिवर्तनशील है। ईश्वर एक ही नहीं, अनेक है। जब तुम दिव्यता की विविधता स्वीकारते हो, तब तुम कट्टर और रूढ़िवादी नहीं रह जाते।  
 

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