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(चिंतन-मनन) सदाचार की परीक्षा

(चिंतन-मनन) सदाचार की परीक्षा


राजा अंग सिंह के पुत्र प्रवीण सिंह गलत संगति में पड़कर अनुचित कार्य करने लगा। चारों तरफ से उसकी शिकायतें आने लगीं। इससे राजा अत्यंत चिंतित हो गए। प्रवीण सिंह अभी बालक ही था, इसलिए राजा चाहते थे कि उसका स्वभाव बदले और भविष्य में वह एक नेक राजा बन सके।  
वह उसे अपने गुरु सोमदेव के पास लेकर आए। सोमदेव ने युवराज को छह माह तक अपने आश्रम में छोड़ देने के लिए कहा। वह प्रतिदिन युवराज को अपने साथ रखते और उससे कई कार्य कराते। इसी तरह तीन महीने बीत गए। अब राजकुमार पर सुसंगति के साथ ही गुरुदेव की बातों का असर पड़ने लगा था।  एक दिन गुरु बोले, 'पुत्र, ईश्वर हर जगह मौजूद है। याद रखो दुष्कर्म और पाप की सजा मिलती अवश्य है क्योंकि ईश्वर सब कुछ देख रहा होता है। जब तुम किसी प्रलोभन से पाप करने को उतारू हो तो वहीं ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करो। तुम हर जगह यह सोचो कि मेरा प्रभु मेरे सामने है।'  
वह ये बातें प्रतिदिन युवराज को बताते। एक दिन उन्होंने राजकुमार को एक खरगोश देकर उसे एकांत में ले जाकर मारने को कहा। युवराज खरगोश को लेकर कई स्थानों पर गया लेकिन उसकी गर्दन नहीं मरोड़ पाया। वह जब भी उसकी गर्दन पर हाथ रखता तो उसकी निरीह आंखों में उसे ईश्वर नजर आते। कई घंटों बाद वह वापस जीवित खरगोश को लेकर गुरु के पास पहुंचा और बोला, 'गुरु जी आप ही ने तो सिखाया है कि हर किसी में ईश्वर की उपस्थिति समझो। फिर मैं अकेला कैसे हो सकता हूं? इस खरगोश की भोली आंखों में मुझे ईश्वर की उपस्थिति नजर आई। इसलिए मैं इसे मार नहीं पाया।'  युवराज की बात सुनकर गुरु सोमदेव ने उसे गले से लगा लिया और बोले, 'पुत्र, आज तुम सदाचार और प्रेम की परीक्षा में पास हो गए हो।' इसके बाद महाराज उसे अपने साथ ले गए।  
 

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