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इस ‘धर्मयुद्ध’ का मूल मकसद क्या....?  (मंदिर-मस्जिद विवाद)  

इस ‘धर्मयुद्ध’ का मूल मकसद क्या....?  (मंदिर-मस्जिद विवाद)  

आज देश में एक अजीब तरह का माहौल है, धर्म और सियासत एक-दूसरे में इतने समाहित हो गए है कि उनमें यह भेद करना मुश्किल है कि कौन किसके साथ है, आज सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के छोटे से लेकर कथित बड़े नेता हमारे ‘भारत’ को भुलाकर ‘हिन्दूस्तान’ की बात कर रहे है, जब ये सत्तारूढ़ लोग जिन्होंने हमारे संविधान के पन्ने तक नहीं पलटे यह भूल जाते है कि हमारे संविधान की मूल भावना क्या है? इनकी इस प्रवृत्ति से तो यही लगता है कि कुछ ही दिनों बाद संविधान पुस्तिका की भी स्थिति हमारे धर्मग्रंथ ‘श्रीमद् भागवतगीता’ जैसी हो जाएगी, जिसका उपयोग सिर्फ और सिर्फ उस पर हाथ रखकर शपथ के लिए रह जाएगा? क्योंकि जहां तक संविधान का सवाल है, उसका पालन न तो सरकार करना चाहती है और न ही सत्तारूढ़ दल के लोग और न ही ये लोग देश के लोगों से संविधान का पालन कराना चाहते है। 
ऐसा कतई नही है कि देश की आजादी के बाद से केवल कांग्रेस ही सत्ता में रही, ये सही है कि आजादी के बाद सत्रह साल नेहरू की सरकार रही और उसके बाद अल्प समय के लिए लाल बहादुर शास्त्री तथा उनके बाद करीब सत्रह साल ही इंदिरा जी प्रधानमंत्री रही, बीच में जनता पार्टी की सरकार भी रही, किंतु इंदिरा जी की हत्या के बाद अर्थात् शताब्दी के अंतिम चरण में गैर कांग्रेसी सरकारों का पदार्पण हो गया, जिसकी शुरूआत स्व. अटल जी ने की थी, अटल जी के बाद एक दशक तक कांग्रेसी सरकार डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृृत्व में रही और 2014 अर्थात् पिछले आठ सालों से माननीय नरेन्द्र भाई मोदी प्रधानमंत्री है, सत्ता का इतना लम्बा इतिहास बताने का मेरा मकसद सिर्फ यही है कि 1991 में कांग्रेस सरकार ने पी.व्ही. नरसिंह राव के नेतृत्व में संसद से पूजा कानून पारित करवाया था, जिसमें पुराने मंदिरों व मस्जिदों या अन्य श्रद्धा स्थलों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ प्रतिबंधित था, जिसकी आज हर कहीं चर्चा की जा रही है, वह भी खासकर बनारस के ज्ञानवापी विवाद के संदर्भ मे।। अब यह बात आम लोगों की समझ से बाहर है कि 1991 के बाद देश में अटल जी जैसे राजनेता की सरकार रही, यही नहीं आज भी देश में गैर कांग्रेसी सरकार है, तो अपने बहुमत के आधार पर उस इक्कतीस साल पुराने कानून को संसद से रद्द क्यों नहीं करवा देती? उसके बाद खुलकर उस पार्टी के महानुभाव हर कहीं ‘ज्ञानवापी काण्ड’ को मूर्तरूप दे, उन्हें फिर कौन रोकेगा? 
वैसे यह मंदिर मस्जिद काण्ड देश के लिए नया कतई नहीं है, आज से डेढ़ दशक पहले अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर भी यही हुआ था और फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वहां राममंदिर का निर्माण शुरू हुआ। अब यह सिलसिला पता नहीं कहां जाकर थमेगा, क्योंकि वाराणसी के ज्ञानवापी काण्ड के बाद कृष्ण जन्मभूमि (मथुरा) को लेकर भी शंखनाद शुरू हो गया है, उसके बाद ताजमहल, कुतुब मीनार जैसे विश्व की धरोहरों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए गए, अब तो देश के हर प्रमुख मस्जिद-मंदिर को आशंका की नजर से देखकर उनके इतिहास खंगालने की तैयारी की जा रही है, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हो चुकी है कि सौ साल से अधिक पुरानी देश की सभी मस्जिदों का सर्वे करवाया जाए व जरूरी हो तो उनमें खनन करके देखा जाए? 
बात सिर्फ मंदिर-मस्जिद तक ही सीमित हो तो फिर भी ठीक था किंतु अब तो मुस्लिम संगठनों के सम्मेलनों में खुलकर अनाप-शनाप आरोप लगाए जाने लगे है, जिसका ताजा उदाहरण जमीयत उलेमा-ए- हिन्द का सम्मेलन है, जिसमें इस संगठन के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने खुलकर अपने भाषण में भावुब मुद्रा में आरोप लगा दिया कि देश में मुसलमानों को अलग-थलग करने की कोशिश की जा रही है तथा मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता के खिलाफ बाकायदा मुहीम चलाई जा रही है, आज देश का मुसलमान डरा सहमा है और असहाय महसूस कर रहा है। देवबंद में आयोजित इस दो दिवसीय मजलिस में 25 राज्यों के 1500 से अधिक मुस्लिम प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। 
आश्चर्य आज इस बात पर है कि इस देश में पहले भी हिन्दूवादी सरकारें रहीं, किंतु ऐसा माहौल तो कभी पैदा नहीं हुआ, जैसा आज है? सत्ता में विराजित नेता न सिर्फ मौन है, बल्कि उन्हें इनका अदृष्य संरक्षण भी प्राप्त हो रहा है। 
इस प्रकार कुल मिलाकर अब धीरे-धीरे धार्मिक कटुता का वातावरण देश में तैयार हो रहा है तथा किसी भी जागरूक बुद्धिजीवी भारतवासी को यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर यह ‘धर्मयुद्ध’ कहां जाकर थमेगा? और उसका हश्र क्या होगा?
(लेखक-ऽ ओमप्रकाश मेहता )
 

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