
मुंबई से सटे उल्हासनगर में वर्षों से खतरनाक इमारतें लोगों के लिए जी का जंजाल बना हुआ है. आलम यह है कि एक आकलन के मुताबिक 50 हजार लोगों की जान खतरे में होने के बावजूद इस ओर अब तक कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. इस ज्वलंत मुद्दे को लेकर अबतक शासन-प्रशासन द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाने से लोगों के बीच नाराजगी देखी जा रही है. मालूम हो कि बरसात के मौसम में खतरनाक इमारतों को गिरने का खतरा बढ़ जाता है, महक नाम की पांच मंजिला इमारत हाल ही में गिर चुकी है तथा अन्य ४ इमारतों के स्लैब गिरने से मनपा ने उन इमारतों को खाली करवाकर सील कर दिया है जिससे १०० से अधिक परिवार बेघर हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि खतरनाक इमारतों में रहने वालों के बीच भय का माहौल बना हुआ है. गौरतलब है कि उल्हासनगर में 300 से अधिक इमारतों को मनपा प्रशासन हर साल खतरनाक इमारत बताकर इसमें नहीं रहने का फरमान तो जारी कर देती है मगर उन खतरनाक इमारतों के बाबत कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही है. पिछले 10 साल में 32 इमारतों में से कुछ गिर गई हैं और कुछ खाली कराई गई हैं. इमारत हादसों में 32 लोग मारे गए हैं और 10 हजार लोग बेघर हुए हैं. बता दें कि उल्हासनगर में दर्जनों ऐसी इमारतें हैं, जो जर्जर अवस्था में पहुंच गई हैं और जिन्हें मनपा ने नोटिस दी है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि बहुत कम सोसायटी रजिस्टर्ड हैं. लोगों ने 100 रुपये के स्टांप पेपर पर अपना फ्लैट रजिस्टर्ड कराया है. जगह आज भी बिल्डरों के नाम पर है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बिल्डर राजी होंगे या बिल्डिंग बनाने के लिए लिखकर देंगे? उल्हासनगर में इससे पहले भी 855 बिल्डिंगों का मुद्दा आया था, जिनका कोर्ट में अब भी केस चल रहा है. वर्ष २००५ में मुंबई हाई कोर्ट ने उन ८५५ इमारतों को तोड़ने का आदेश दिया था जिसके बाद शहर में कोहराम मच गया था. काफी जद्दोजहद के बाद राज्य सरकार ने अध्यादेश जारी कर उन ८५५ इमारतों से दंड राशि लेकर उन्हें वैध करने का प्रावधान किया लेकिन नेताओं ने अधिक दंड राशि को कम करवाने का आश्वासन देकर इस मामले को पिछले १५ वर्षों से लटककर रखा है और अब ८५५ का मैटर एक बार फिर हाई कोर्ट में है जिसके सुनवाई २ सितंबर को होनी है. उधर खतरनाक इमारतों में जान हथेली पर लेकर रहने वालों का कहना है कि वह अपने परिवार समेत आखिर जाएं तो जाएं कहां? बात करें शासन-प्रशासन की तो इस ज्वलंत मुद्दे को लेकर कोई भी गंभीर नज़र नहीं आ रहा, केवल खानापूर्ति की जा रही है. यही वजह है कि खतरनाक इमारतों का मुद्दा पिछले कई वर्षों से जस का तस बना हुआ है और एक आकलन के मुताबिक तकरीबन 50 हजार लोगों की जान खतरे में है.