
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के बाद राजस्थान में भाजपा नेतृत्व ने नई राह पकड़ी है। पुराने चेहरों की जगह अब नए चेहरों को तरजीह देने की योजना बनी है। विधानसभा चुनाव की हार के बाद से वसुंधरा राजे तो किनारे लगाई जा चुकी हैं। हकीकत और अपने संकट को वसुंधरा भी भांप चुुकी हैं। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो जाने के बाद वसुंधरा को समझ आ चुकी है कि अब वे पार्टी की मजबूरी नहीं रह गई हैं। अलबत्ता आलाकमान यही धारणा बना चुका है कि वसुंधरा को दूर रखने का फायदा मिला। छह महीने से चल रहे पार्टी के सदस्यता अभियान में भी वसुंधरा कहीं नहीं दिखीं। उलटे एक महीने तो वे विदेश में ही थीं। अभियान के संयोजक शिवराज चौहान जयपुर आए तो शहर में होते हुए भी वसुंधरा ने उनकी समीक्षा बैठक से किनारा किया। गजेंद्र सिंह शेखावत को कैबिनेट में मंत्री बनाने के बाद कोटा के ओम बिरला को लोकसभा अध्यक्ष बनाकर जता दिया गया कि पार्टी में चेहरों की कमी नहीं। बिरला केंद्र की नई पसंद बन कर उभरे हैं। लोकसभा अध्यक्ष के नाते उनका प्रदर्शन चौतरफा सराहा गया है। इसी तरह सदस्यता अभियान में युवा विधायक सतीश पूनिया ने भी कमाल का कौशल दिखाया है। उम्मीद तो उनके समर्थक यही लगा रहे हैं कि आलाकमान उन्हें सूबे में पार्टी का नेतृत्व सौंप सकते हैं। सूबे में सक्रियता की सलाह राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को भी मिली है। इसीलिए उन्हें इस बार केंद्र में मंत्री पद नहीं दिया गया।