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 विपक्ष की कमजोरी बनेगा एनडीए का हथियार

 विपक्ष की कमजोरी बनेगा एनडीए का हथियार

नई दिल्ली । बिहार विधानसभा चुनाव में सामाजिक समीकरणों को साधते हुए राजग एनडीए के चारों दलों ने खास रणनीति बनाई हुई है। भाजपा ने जहां अपने कोर सवर्ण वर्ग को साधा है, वहीं जद (यू) ने पिछड़ा व अति पिछड़ा कार्ड खेला है। दोनों दलों के दोनों सहयोगी वीआईपी व हम भी इसी रणनीति पर काम कर रहे हैं। भााजपा ने अपनी रणनीति में पिछड़ा, अति पिछड़ा व दलित समुदाय पर भी खास फोकस किया है। इससे जाहिर है उसकी कोशिश राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की है। भाजपा ने अपने 110 उम्मीदवारों में 50 सवर्ण समुदाय को टिकट दिए हैं। इनमें राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार व कायस्थ शामिल हैं। राज्य में वैश्य समुदाय पिछड़ा में आता है और वह भाजपा का समर्थक माना जाता है। ऐसे में उसने 15 उम्मीदवार वैश्य समुदाय के भी उतारे हैं। साथ ही इतने ही यादवों को टिकट दिया है, ताकि राजद के कोर वोट में थोड़ी बहुत सेंध लगाई जा सके। पिछली बार उसने 22 यादव उम्मीदवार उतारे थे और छह जीते थे। इसके साथ 15 अनुसूचित जाति व एक अनुसूचित जनजाति को टिकट दिया है। 14 सीटों पर अन्य पिछड़ा व अति पिछड़ा वर्ग से उम्मीदवार उतारे हैं, ताकि सारे सामाजिक समीकरण साधे जा सकें। भाजपा की सहयोगी जद (यू) ने भी अपने कोर वोट पिछड़ा व अति पिछड़ा को आगे रखकर टिकट बांटे हैं। ज्यादा सीटों पर लड़ रहे जद (यू) की कोशिश भी ज्यादा सीटों पर जीतने की है ताकि गठबंधन में व सरकार बनने की स्थिति में उसकी स्थिति मजबूत रहे। अपने हिस्से की 122 सीटों में से सात सीटें जीतनराम मांझी की हम को देने के बाद 115 सीटों में जद (यू) ने 67 उम्मीदवार पिछड़ा-अति पिछड़ा उतारे हैं। इनमें 40 पिछड़ा व 27 अति पिछड़ा समुदाय से हैं। जद (यू) ने अपने हिस्से से केवल 19 सवर्ण उम्मीदवार ही उतारे हैं। इसके अलावा 17 अनुसूचित जाति व एक जनजाति को टिकट दिया है। नीतीश कुमार ने 11 सीटों पर मुसलमानों को भी टिकट दिया है। दरअसल गठबंधन ने सीटों के बंटवारे व उम्मीदवार तय करने में सारे सामाजिक समीकरण साधने की कोशिश की है, लेकिन जद (यू) व भाजपा दोनों खुद को बड़ी पार्टी के रूप में उभारने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि चुनाव जीतने की स्थिति में यह साफ है कि नीतीश कुमार ही राजग के मुख्यमंत्री होंगे, लेकिन अगर भाजपा राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती हैं तो देर सबेर सत्ता समीकरण बदल भी सकते हैं। भाजपा यहां पर महाराष्ट्र जैसी जल्दबाजी नहीं करेगी, बल्कि धीरे धीरे परिस्थितियों को अपने अनुकूल करने की कोशिश कर सकती है।
 

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